रविवार, 15 मई 2016

हमारी शिक्षा प्रणाली


देश का निर्माण बच्चों से, युवाओं से होता है और बच्चे मजबूती से अपने पैरों पर खड़े हों, सर्वांगीण विकास करें, इसकी जिम्मेदारी माता-पिता के साथ ही शैक्षणिक ढाँचे की होती है। क्या हमने आजादी के बाद लगभग 70 सालों में अपनी नई पीढ़ियों को देने के लिए कोई अनुकूल शैक्षणिक ढ़ांचा तैयार किया?

सैकड़ों साल पहले लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा का जो ढ़ांचा तैयार करके दे दिया था, सभी सरकारें आज तक उसी ढ़ांचे को अपनाए हुए हैं। किसी सरकार में वह हौसला या इच्छा-शक्ति दिखाई नहीं दी कि कुछ अभिनव, हमारे देश की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ नया करने की सोचें। हमारा दुर्भाग्य है कि इस देश में शिक्षा हर सरकार की अंतिम प्राथमिकता रही है। सरकार केंद्र की हो या राज्य की, जब भी बजट में कोई कटौती करनी हो, तो कैंची सबसे पहले शिक्षा विभाग पर चलती है।

शिक्षा में भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है स्कूल शिक्षा, जिसकी हालत समूचे देश में इतनी जर्जर है कि दुनिया के अनेक पिछड़े देशों का स्तर भी हमसे कहीं आगे है। देश के निर्माण के लिए जो कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वही सर्वाधिक उपेक्षित रहा है। आज हमारी स्कूली शिक्षा क्या किसी काम की है? येन-केन-प्रकारेण परीक्षा में अंकों का उच्चतम प्रतिशत हासिल करना ही इस शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य रह गया है। कॉलेज शिक्षा में जाने के लिए ऊँचे अंक प्रतिशत की दौड़ और होड़ में छात्र, अध्यापक और कोचिंग व्यवसाय, सभी जुटे हैं। मान लीजिए, 10 प्रतिशत छात्र 90 या उससे अधिक प्रतिशत अंक प्राप्त करके उच्च शिक्षा में चले भी जाते हैं, तो शेष 90 प्रतिशत छात्रों को हम किसके भरोसे छोड़ रहे हैं? क्या उन बच्चों की देशको आवश्यकता नहीं है? क्या देश के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं होगा? तो फिर हम उनको नैराश्य और कुंठा से भरा जीवन जीने को क्यों विवश कर रहे हैं?

कोई भी सरकार विकास के चाहे जितने दावे कर ले, जब तक शैक्षिक ढांचे में आनूलचूल परिवर्तन करके बच्चों को जीवनोपयोगी शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था नहीं करती, शिक्षण अध्यव्यवसाय को एक सम्मानजनक दर्जा नहीं देती, तब तक सारा विकास बेमानी है, खोखला है, एक मरीचिका मात्र है।

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