शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

भ्रष्टाचार – एक सच्चाई या मिथक?


आज चारों तरफ इस शब्द का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। आखिर भ्रष्टाचार होता क्या है? इसे समझने की कोशिश करते हैं। कोई भी ऐसा काम या आचरण या काम या आचरण करने का प्रयास जो नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, विधिक नियमों, विनियमों या संविधान के विपरीत हो। जैसा कि शब्दार्थ (भ्रष्ट+आचार = भ्रष्टाचार) इंगित करता है। हर गलत आचरण भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है और इस भ्रष्टाचार की बीमारी से शायद ही कोई अछूता रह पाता है। अगर भारतीय परिवेश में देखा जाए तो ईश्वर के बारे में कही जाने वाली कहावत- ‘कण कण में भगवान’ आज ‘कण कण में भ्रष्टाचार’ में परिवर्तित हो चुकी है। अब यह भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा, है तो भ्रष्टाचार ही। घर-घर में, हर व्यक्ति के आचरण में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी को नजर नहीं आता। हम कितने अनैतिक आचरण रोज करते हैं? क्या वे भ्रष्टाचार के लघु कूप नहीं हैं? घर में माँ द्वारा बेटे-बेटी में भेद-भाव, पराए घर की बेटी जो हमारे घर की बहू बन कर आती है, उसके साथ हमारा व्यवहार, भाई का भाई के साथ व्यवहार, बेटे-बेटियों द्वारा अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ किया जाने वाला व्यवहार, समाज में जाति और धर्म के नाम पर बँटवारा, ऊँच-नीच, छुआछूत, बेईमानी, लालच, मुनाफाखोरी, घूसखोरी आदि कितने ही गलत आचरण हैं जो स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार के दायरे में आते हैं। और तो और भगवान को भी इस भ्रष्टाचार में शामिल कर लिया गया है। भगवान के नाम पर तमाम गलत और अवैध आचरण किए जा रहे हैं। अपने दिल पर हाथ रखिए और सोचिए, क्या आप और हम भगवान को रिश्वत देने की कोशिश नहीं करते हैं? हे भगवान (हनुमानजी, गणेशजी, भोलेबाबा, कन्हैया, माताजी!), मेरा यह काम हो जाए तो मैं ग्यारह रुपए का (अपने मकसद के महत्व के अनुसार इस रिश्वत की मात्रा बढ़ जाती है) प्रसाद चढ़ाऊँगा/चढ़ाऊँगी। बच्चों को बचपन से ही भ्रष्टाचार की डगर पर डाल दिया जाता है।
पूरा समाज आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा है, लेकिन हाय-तौबा केवल राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर की जाती है। क्या राजनीति और प्रशासन में जो लोग हैं, उनको कहीं बाहर से आयात किया गया है? नहीं, तो फिर जब वे इस भ्रष्ट समाज का ही एक हिस्सा हैं, तो वे कहीं भी रहें, उनका आचरण भ्रष्ट ही रहेगा। सब अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। आजादी से लेकर आज तक जैसे गांधी के नाम को भुनाया गया, अब भ्रष्टाचार के नाम का विपणन किया जा रहा है। दूसरे पर एक अंगुली उठाने वाला यह नहीं देख पाता कि उसके हाथ की शेष अंगुलियाँ खुद उसी की ओर इशारा कर रही हैं।
यदि व्यापक रूप से देखा जाए तो केवल राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर शोर मचाने से क्या हम कण-कण में व्याप्त इस कलयुगी सर्वव्यापी ‘भ्रष्टाचार’ से वास्तव में मुक्त हो सकते हैं? जब बात अपने पर आती है तो शुरू हो जाता है, दोषारोपणों का दौर। कितनी विचित्र बात है कि इस देश की 125 करोड़ जनसंख्या के केवल 3 प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं, जिनमें अधिकतर सराकारी अधिकारी या कर्मचारी होते हैं। छठे वेतन आयोग की सिफारिशो के बाद एक चपरासी या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी आयकर के दायरे में आ जाता है, लेकिन लाखों-करोड़ों कमाने वाले व्यापारी मजे से बच निकलते हैं। 3 प्रतिशत लोगों से वसूल किए गए कर से पूरे 125 करोड़ लोगों के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं। जो सरकारी नौकरी में नहीं है, उसके द्वारा की जाने वाली कर-चोरी क्या भ्रष्टाचार नहीं है?

स्पष्ट है, हमने अपनी सुविधा के लिए, भ्रष्टाचार की दो श्रेणियाँ बना दी हैं- निजी और सार्वजनिक क्षेत्र। हमारे लिए निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार गौण है, हमें केवल सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर आपत्ति है।