शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

भ्रष्टाचार – एक सच्चाई या मिथक?


आज चारों तरफ इस शब्द का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। आखिर भ्रष्टाचार होता क्या है? इसे समझने की कोशिश करते हैं। कोई भी ऐसा काम या आचरण या काम या आचरण करने का प्रयास जो नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, विधिक नियमों, विनियमों या संविधान के विपरीत हो। जैसा कि शब्दार्थ (भ्रष्ट+आचार = भ्रष्टाचार) इंगित करता है। हर गलत आचरण भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है और इस भ्रष्टाचार की बीमारी से शायद ही कोई अछूता रह पाता है। अगर भारतीय परिवेश में देखा जाए तो ईश्वर के बारे में कही जाने वाली कहावत- ‘कण कण में भगवान’ आज ‘कण कण में भ्रष्टाचार’ में परिवर्तित हो चुकी है। अब यह भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा, है तो भ्रष्टाचार ही। घर-घर में, हर व्यक्ति के आचरण में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी को नजर नहीं आता। हम कितने अनैतिक आचरण रोज करते हैं? क्या वे भ्रष्टाचार के लघु कूप नहीं हैं? घर में माँ द्वारा बेटे-बेटी में भेद-भाव, पराए घर की बेटी जो हमारे घर की बहू बन कर आती है, उसके साथ हमारा व्यवहार, भाई का भाई के साथ व्यवहार, बेटे-बेटियों द्वारा अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ किया जाने वाला व्यवहार, समाज में जाति और धर्म के नाम पर बँटवारा, ऊँच-नीच, छुआछूत, बेईमानी, लालच, मुनाफाखोरी, घूसखोरी आदि कितने ही गलत आचरण हैं जो स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार के दायरे में आते हैं। और तो और भगवान को भी इस भ्रष्टाचार में शामिल कर लिया गया है। भगवान के नाम पर तमाम गलत और अवैध आचरण किए जा रहे हैं। अपने दिल पर हाथ रखिए और सोचिए, क्या आप और हम भगवान को रिश्वत देने की कोशिश नहीं करते हैं? हे भगवान (हनुमानजी, गणेशजी, भोलेबाबा, कन्हैया, माताजी!), मेरा यह काम हो जाए तो मैं ग्यारह रुपए का (अपने मकसद के महत्व के अनुसार इस रिश्वत की मात्रा बढ़ जाती है) प्रसाद चढ़ाऊँगा/चढ़ाऊँगी। बच्चों को बचपन से ही भ्रष्टाचार की डगर पर डाल दिया जाता है।
पूरा समाज आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा है, लेकिन हाय-तौबा केवल राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर की जाती है। क्या राजनीति और प्रशासन में जो लोग हैं, उनको कहीं बाहर से आयात किया गया है? नहीं, तो फिर जब वे इस भ्रष्ट समाज का ही एक हिस्सा हैं, तो वे कहीं भी रहें, उनका आचरण भ्रष्ट ही रहेगा। सब अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। आजादी से लेकर आज तक जैसे गांधी के नाम को भुनाया गया, अब भ्रष्टाचार के नाम का विपणन किया जा रहा है। दूसरे पर एक अंगुली उठाने वाला यह नहीं देख पाता कि उसके हाथ की शेष अंगुलियाँ खुद उसी की ओर इशारा कर रही हैं।
यदि व्यापक रूप से देखा जाए तो केवल राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर शोर मचाने से क्या हम कण-कण में व्याप्त इस कलयुगी सर्वव्यापी ‘भ्रष्टाचार’ से वास्तव में मुक्त हो सकते हैं? जब बात अपने पर आती है तो शुरू हो जाता है, दोषारोपणों का दौर। कितनी विचित्र बात है कि इस देश की 125 करोड़ जनसंख्या के केवल 3 प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं, जिनमें अधिकतर सराकारी अधिकारी या कर्मचारी होते हैं। छठे वेतन आयोग की सिफारिशो के बाद एक चपरासी या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी आयकर के दायरे में आ जाता है, लेकिन लाखों-करोड़ों कमाने वाले व्यापारी मजे से बच निकलते हैं। 3 प्रतिशत लोगों से वसूल किए गए कर से पूरे 125 करोड़ लोगों के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं। जो सरकारी नौकरी में नहीं है, उसके द्वारा की जाने वाली कर-चोरी क्या भ्रष्टाचार नहीं है?

स्पष्ट है, हमने अपनी सुविधा के लिए, भ्रष्टाचार की दो श्रेणियाँ बना दी हैं- निजी और सार्वजनिक क्षेत्र। हमारे लिए निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार गौण है, हमें केवल सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर आपत्ति है।   

रविवार, 15 सितंबर 2013

पितृसत्तात्मक सोच की पराकाष्ठा और मीडिया द्वारा उसका प्रचार

“अगर मेरी बेटी शादी से पहले किसी से संबंध बनाती या अपनी नैतिकता को भूल कर किसी के साथ रात को पिक्चर देखने जाती तो मैं उसे अपने फार्म हाउस ले जाकर, अपने परिवार के सामने पेट्रोल डाल कर आग लगा देता” -ए. पी. सिंह,  दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों का वकील।

एक बात समझ में नहीं आ रही है कि दुष्कर्म के आरोपियों के वकील द्वारा बुर्जुआ मानसिकता का एक बयान दिया गया, जो निश्चय ही धिक्कार के योग्य है, लेकिन मीडिया द्वारा जिस प्रकार उस को अपने स्टूडियो में बुला कर लगातार इस पर चर्चा की जा रही है, उससे तो उसके विचारों को व्यापक प्रचार मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर निरंतर पोस्ट लिखे जा रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि दुनिया भर में समाज पुरुषसत्तात्मक हैं। भारत में भी शिक्षा के प्रसार और वैश्वीकरण के संपर्क के परिणामस्वरूप लोगों की सोच में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है। महिलाओं के एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। लेकिन अभी भी समाज में तीन स्पष्ट विभाजन नजर आते हैं। एक जो पूरी तरह से नारी की स्वतंत्रता के हामी हैं और दूसरे जो पुरानी सोच के दायरे से नहीं निकल पाए हैं। इन दोनों वर्गों की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं है। सबसे बड़ी संख्या सोच के संक्रमण से गुजर रहे वर्ग की है जिसका मन पुरातन पुरुषवादी सत्तात्मक समाज के साथ है किंतु उसका तार्किक मस्तिष्क आधुनिक समाज के साथ जाने को प्रेरित करता है। इस बड़े वर्ग के लोगों की कथनी और करनी में भारी अंतर है। ये लोग चूँकि बीच में लटके हैं इस लिए बात तो नारी स्वतंत्रता की करते हैं लेकिन व्यवहार में पुरुषप्रधान, पितृसत्तात्मक आचरण करते हैं। कृपया उस पितृसत्तात्मक सोच वाले वकील पर चर्चा को विराम दें जिससे उसके विचारों का समाज के इस सबसे बड़े, बीच में लटके लोगों पर अधिक प्रभाव न हो।

खुशी के आँसू -एक लघु कथा

आज एक बहुत मार्मिक लघु कथा पढ़ने को मिली.....
(मूल लेखक से साभार) 

इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया ....क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !

पिछले दिनों तन्ख्वाह मिली तो मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !

बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया कि पुराने जूतों को बस थोड़ी सी मरम्मत की जरुरत है, वो अभी इस साल काम दे सकते हैं!

अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !

मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है इसलिए अपने जूतों की बजाये उनके चश्मे को ज्यादा जरूरी समझ रहा है !

खैर, मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस की दूकान पर पहुंचा.....दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली ...डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट थी.....फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !!!!

मैंने बेटे से कहा :बेटा ये शर्ट तुम्हे बिलकुल सही है तो फिर और लम्बी क्यों ??/

बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.......लेकिन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ जाएगी ......पिछली वाली शर्ट भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है लेकिन छोटी होने की वजह से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !

मैं खामोश रहा !!

घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा :तुम्हे ये सब बातें कौन सिखाता है बेटा ????

बेटे ने कहा :पिता जी मैं अक्सर देखता था कि कभी माँ अपनी साडी छोड़कर तो कभी आप अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबो और कपड़ो पैर पैसे खर्च कर दिया करते हैं !

गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत इमानदार आदमी हैं और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर ,कुत्ता, बेईखुशी मान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं.....

जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है.....मम्मी और दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं !

पिता जी मैं चाहता हूँ मुझे कभी जीवन में नए कपडे ,नए जूते मिले या न मिले
लेकिन कोई आपको चोर ,बेईमान, रिश्वतखोर या कुत्ता न कहे !!!!!

मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी, आपकी कमजोरी नहीं !

बेटे की बात सुनकर मैं निरुतर था ,,आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!

आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे....
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हाँ तो दोस्तों.....

कभी इस किस्म की अनुभूति हुई है आपको अपनी जिन्दगी में ?

या फिर कभी इस किस्म की अनुभूति महसूस करना चाहेंगे अपने जीवन में ?

तो अपने बच्चे को एक नया भ्रष्टाचार मुक्त भारत दीजिये....

देखिये, पढ़िए, तुलना कीजिये, अपना दिमाग लगाइए और फिर फैसला कीजिये क्योंकि एक बात हमेशा याद रखिये कि----

बुधवार, 7 अगस्त 2013

ईमानदारी को मिलती है सजा

जम्मू और काश्मीर की सबसे वरिष्ठ आईएएस सोनाली कुमार को दिल्ली में प्रिंसीपल रेजिडेंट कमिश्नर के पद से स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि योजना आयोग की बैठक में भाग लेने आये कश्मीर के एक दल को उन्होंने नाश्ते में कबाब और बिरयानी नहीं खिलाई थी। राजस्थान में अशोक गहलोत ने आईपीएस पंकज चौधरी को इसलिए हटा दिया क्योंकि उन्होंने एक हिस्ट्रीशीटर की फाइल को फिर से खोल दिया था जिसे गहलोत सरकार बंद करवा चुकी थी। इससे पहले गहलोत सरकार भरतपुर के आईपीएस विकासकुमार को भी हटा चुकी है, जिसने अवैध खनन में लगे 100 से अधिक वाहन एक ही दिन में जब्त किए थे और अनेक लोगों को गिरफ्तार किया था, राजनीतिक गलियारों में हाहाकार मच गया था और अपनी जमात के लोगों को संतुष्ट करने के लिए गहलोत द्वारा विकासकुमार को हटा दिया गया था, सारे वाहन और पकड़े गए लोग छोड़ दिए गए थे। इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में कमिश्नर हिमांशुकुमार को केवल 23 घंटे में स्थानांतरित कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने भी दुर्गाशक्ति की तरह वहाँ के भू माफिया के विरुद्घ अभियान चलाया था। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। हरियाणा हो या पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश हो या उड़ीसा, तमिलनाडु हो या कर्नाटक, सभी सरकारें आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को अपना वफादार देखना चाहती हैं। सरकारों के काम नियम/कानून विरुद्ध हों तब भी वे उनका ही साथ दें। जो ईमानदारी को नहीं छोड़ना चाहता/चाहती उसे पद से हटा दिया जाता है।

क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं?

उत्तरप्रदेश में 43 आईपीएस अफसर ऐसे हैं जिनको 40 से अधिक बार स्थानांतरित किया गया है। अपने राजनीतिक आकाओं के मनमाफिक काम नहीं करने वालों का यही अंजाम होता है। आपको बहादुरी और कभी-कभी कायरता के लिए ईनाम मिल सकता है, चापलूसी के लिए इनाम मिल सकता है, काले धंधों में भागीदार होने के लिए इनाम मिल सकता है, लेकिन ईमानदारी के लिए कभी इनाम नहीं मिलता, केवल सजा मिलती है। फिर लगभग हर क्षेत्र में ये 5-7 प्रतिशत लोग क्या सिरफिरे होते हैं, जो ईमानदारी का दामन मरते दम तक नहीं छोड़ते। भयंकर यंत्रणाओं का सामना करके भी ये अपनी ईमानदारी पर डटे रहते हैं। या आप कह सकते हैं कि ये अलग ही मिट्टी के बने होते हैं। लेकिन उन्हीं क्षेत्रों में शेष 95 प्रतिशत रीढ़विहीन, प्रवाह के साथ बह जाने वाले, आकाओं को हर तरह से खुश रखने वाले, खुद खाने वाले और ऊपर वालों को खिलाने वाले, हमेशा खुश रहते हैं, समय-समय पर इनाम पाते हैं। सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के जाने से इस देश के आम नागरिक को क्या मिला? अंग्रेजों में कम से कम ईमान तो था, अब जो देशी अंग्रेज सत्ता में हैं वे तो अपना धर्म ईमान पहले ही बेच कर कुर्सी पर बैठते हैं। 15 अगस्त 1947 को केवल सत्ता परिवर्तन हुआ था। देश आजाद नहीं हुआ था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथों से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथों में आ गई थी। जनता तब भी त्रस्त थी आज भी त्रस्त है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

भ्रष्टाचार के मामले में हम एक हैं!

परत-दर-परत उतरते आवरणों के बाद एक बार फिर से भारतीय राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया है। वामपंथ-दक्षिण पंथ, सांप्रदायिक-गैर सांप्रदायिक, प्रगतिशील-बुर्जुआ आदि तमाम मतभेदों को भुला कर तमाम सियासी जमातें कल एक बिंदु पर सहमत हो गई कि अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने और 2 साल की सजा होने पर सदस्यता समाप्ति संबंधी उच्चतम न्यायालय के आदेश को चुनौती दी जाए। सदन में कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ने वाले, संसद न चलने देकर संसद की तौहीन करने वाले, सभी इस मुद्दे पर एक हो गए। इससे दो बाते तो बिलकुल साफ हैं, इनकी लड़ाई दिखावे की है, असलियत में सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सभी दलों का मानना है कि बेहतर चुनाव प्रबंधन के लिए अपराधियों को शामिल करना आवश्यक है। आज संसद में अनेक महत्वपूर्ण बिल लटके पड़े हैं, उन्हें पास करने के लिए ये कभी एक नहीं होंगे। कई दलों के तो आधे जन-प्रतिनिधि अपराधी छवि वाले हैं। एक ही थाली के चट्टे-बट्टे भारत की जनता को बिलकुल बेवकूफ समझते हैं। उन्हें लगता है कि वे कुछ भी करें जनता कुछ नहीं समझती। चार दिन बाद वह सब भूल जाएगी। अपराधियों को तुनाव लड़ने से रोकने वाले उच्चतम न्यायालय के आदेश को चुनौती देकर इन सभी दलों ने यह साबित कर दिया है कि “चाहे लाख जतन करलो हम नहीं सुधरेंगे।”

झारखंड की गरीब आदिवासी लड़कियों के हौसले को सलाम!

कश्मीर से कन्याकुमारी तक और नागालैंड से कच्छ तक पूरे देश में एक बात सर्वविद्यमान है और वह है आपाधापी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता। पहले बचपन में सुनते थे कि कण-कण में भगवान है, लेकिन भगवान का कण-कण में होना तो सत्यापित न हो पाया, हाँ एक नई चीज का पता चल गया जो हमारे देश के कण-कण में विद्यमान है, वह है भ्रष्टाचार। क्षेत्र कोई सा भी हो भ्रष्टाचार अवश्य होगा। खेल भी इससे अछूते नहीं हैं। खेलों के राजा क्रिकेट के महाभ्रष्टाचार से तो कोई भी अनजान नहीं है। झारखंड के एक छोटे से गाँव में कुछ आदिवासी लड़कियों की खेलने में रुचि थी। इन अति-गरीब बच्चियों के पास न तो किसी खेल की जानकारी थी और न ही किसी खेल के लिए साजोसामान था। कैलिफोर्निया के एक युवा फुटबॉलर फ्रैंस की नजर इन लड़कियों पर पड़ी और फ्रैंस ने बीड़ा उठाया इन अनगढ़ हीरों को तराशने का। न साध थे, न आपस में संपर्क के लिए कोई भाषा-साम्य, फिर भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली इन आदिवासी लड़कियों को तैयार कर स्पेन में आयोजित होने वाली एक विश्व स्तरीय फुटबॉल प्रतियोगिता में 13 वर्ष से कम आयु-समूह में भाग लेने का मन बना लिया। जब वीजा की समस्या आई तो लड़कियों ने पंचायत से उन्हें निवास और जन्मतिथि प्रमाण पत्र देने की प्रार्थना की। बदले में उन्हें मारा पीटा गया, दुत्कारा गया, ठोकरें मारी गई, पंचायत भवन में झाड़ू लगवाई गई। खैर किसी प्रकार से निको वीजा मिला, पासपोर्ट बने और ये नन्हीं लड़कियाँ पहुँच गई स्पेन। 30 देशों की 400 से ज्यादा टीमें इस प्रतियोगिता में भाग ले रहीं थी, किंतु हमारी इन नन्हीं परियों ने पहली बार खुली आँखों से सपना देखा था। तो शुरू हुआ एक के बाद एक विदेशी टीमों को हराने का और अंत में भारतीय टीम ने तीसरा स्थान पर हासिल किया। घनघोर आदिवासी इलाके की इन अबोध बालिकाओं की इस महान उपलब्धि पर, कहीं कोई भी पंक्ति नहीं लिखी गई, न किसी फोटोग्राफर की फ्लैश चमकी, न किसी छोटे या बड़े नेता या अधिकारी ने सराहना के दो बोल बोले। भारतीय फुटबॉल संघ और झारखंड फुटबॉल संघ का कहना है कि ये लड़कियाँ हमारे माध्यम से नहीं गई थी और स्पेन की प्रतियोगिता का तो हमें पता तक नहीं था।
सवाल यह उठता है कि 135 करोड़ के इस देश में हजारों नहीं लाखों प्रतिभाएँ बिखरी हुई हैं, क्या किसी भी खेल संघ ने ग्रामीण भारत से कभी प्रतिभाओं की तलाश करने की कोशिश की? कितने शर्म की बात है कि एक विदेशी अकेला अपने दम पर कुछ निहायत गरीब आदिवासी लड़कियों को तलाशता, तराशता है और एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में वे लड़कियाँ तीसरा स्थान प्राप्त करती हैं। यदि उनको मैदान, साधन और पोषण प्रदान किया गया होता तो कोई कारण नहीं था कि वे पहला स्थान भी प्राप्त कर सकती थी। लेकिन ऐसा होगा कैसे? हमारे खेल संघ भी तो घोर राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि एक आदमी 40 साल, 22 साल, 20 साल से एक ही पद पर जमा हुआ है और सराकरी अनुदान तथा प्रायोजन से प्राप्त पैसे की लूट खसोट में ही व्यस्त है, खेल जाए भाड़ में। झारखंड की बीपीएल परिवारों की इन वीर बालाओं के हौसले को सलाम।

बुधवार, 31 जुलाई 2013

ईमानदारी को सजा

उत्तरप्रदेश में यमुना के किनारे चलने वाले अवैध खनन माफिया का कारोबार कम से कम एक हजार करोड़ प्रति वर्ष का है। इस एक हजार करोड़ में सब का हिस्सा है। इस मोटी मलाई को भला सत्ता में बैठे मंत्री और राजनेता कैसे छोड़ सकते हैं। उ.प्र. आईएएस एसोसिएशन के विऱोध के बावजूद सरकार निलंबन वापस न लेने पर अड़ी हुई है। इससे साबित होता है कि अवैध खनन माफिया की जड़ें कितनी गहरी हैं। मजे की बात यह है कि पूरे देश में मामला उजागर होने के बाद, आज भी अवैध खनन बदस्तूर जारी है। सैंया भये कोतवाल तो फिर डर काहे का। सपा सरकार के पास ब्रह्मास्त्र है सांप्रदायिक तनाव का। सार्वजनिक स्थान पर अवैध रूप से कुछ दीवारें खड़ी की जा रही थी जिसे ईमानदार आईएएस अधिकारी न रुकवा दिया। पहले तो सार्वजनिक स्थान पर किसी प्रकार का (धार्मिक स्थल के निर्माण सहित) निर्माण ही नहीं किया जा सकता। और फिर दो-चार दीवारों को मस्जिद का नाम दे कर सांप्रदायिक सद्भाव नष्ट होने का झूठा बहाना बनाया गया और एक होनहार, ईमानदार अधिकारी को निलंबित कर दिया गया। एक बार फिर से बुराई का रावण जीत गया और सच्चाई का राम अपनी जन्मभूमि में ही हार गया।

जब भी सत्ता का परिवर्तिन होता है, आनेवाली सरकार अपने वफादार चापलूसों को मुख्य सचिव, प्रधान सचिव, पुलिस महानिदेशक, पुलिस कमिश्नर, जिलाधीश जैसे प्रमुख पदों पर तैनात करती है, भारी संख्या में अधिकारियों के स्थानांतरण किए जाते हैं। पार्टी चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी, सपा हो या बसपा, द्रमुक हो या अन्नाद्रमुक। सारे देश में बिना किसी अपवाद के सरकारें आईएएस/आईपीएस अधिकारियों में से आसानी से अपना ईमान बेच सकने वाले लोगों को छाँट कर उन्हें ऊँचे पदों पर आसीन करती हैं। अब जो ईमानदार अधिकारी भ्रष्टाचार की वैतरणी के साथ बहने को तैयार नहीं होते, उनके साथ अशोक खेमका या दुर्गा शक्ति नागपाल या सत्यदेव दुबे जैसा व्यवहार किया जाता है। सत्ता में आते ही पार्टी उस प्रदेश को अपनी संपत्ति मान लेती है और उसके मंत्री और नेता कारिंदे बन जाते हैं। उसी सदियों पुराने सामंतशाही युग को दोहराया जाता है। भूमाफिया, निर्माण-माफिया, शराब माफिया, खनन-माफिया, रेत-माफिया आदि जैसे कितने ही माफिया सरकारों की मिली-भगत से लगभग हर राज्य में काम कर रहे हैं। फिर इन शक्तिशाली माफियाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने वाले जनसेवक के विरुद्ध उसी प्रशासनिक सेवा के बिके हुए अधिकारी कार्रवाई करते हैं। दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन पर किसी राजनेता ने नहीं किसी आईएएस अधिकारी ने ही हस्ताक्षर किए हैं। अगर उस अधिकारी का ईमान या आत्मसम्मान जाग्रत होता तो वह ऐसे आदेश पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर सकता था। लेकिन इसका इंतजाम सरकारें पहले से करके रखती हैं। ऊँचे पदों पर ईमान या आत्मा या अंतरात्मा जैसी चीज रखने वाले अधिकारी को लगाया ही नहीं जाता।

सबसे बड़ा दार्शनिक- कबीर

देखा है कि लोगों को जब किसी दार्शनिक बात का हवाला देना होता है तो कनफ्यूशस या सुकरात अन्य किसी विदेशी का संदर्भ देते हैं। मेरी सोच थोड़ी अलग है, मेरी नजरों में सबसे बड़ा दर्शनिक था ‘कबीर’ जिसने जीवन के हर पहलू को दो पंक्तियों के अपने दोहों में इतनी खूबी से व्यक्त किया है कि उनमें जीवन का लगभग सारा ज्ञान समा गया हैः-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। 
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
आज आम जनता को अपने पाँव की धूल समझने वाले सत्ताधीशों को लिए भी कबीर का एक दोहा पेश हैः
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । 
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 

गरीबी का सरकारी पैमाना

मेरी एक राय है और मैं समझता हूँ कि आप सब भी इससे सहमत होंगे- गरीबी के मानक तैयार करने में जो-जो लोग शामिल हैं, जैसे योजना आयोग और संबंधित मंत्रालय के सभी सदस्यों और अध्यक्षों को कम से कम एक महीने तक एक अलग स्थान पर रखा जाए और उनको अपना गुजारा करने के लिए 33 रुपए रोज दिए जाएँ। इसके अलावा उनको किसी प्रकार की कोई सुविधा, कोई फर्नीचर, कोई ऐशो-आराम की वस्तु न दी जाए। उन्हें अपने रहने की व्यवस्था भई खुद ही करनी हो। फिर देखें कौनसा माई का लाल एक महीने बाद जिंदा बचता है। यह सरकार किसको मूर्ख बनाना चाहती है। इन लोगों की चमड़ी मगरमच्छ से भी मोटी हो चुकी है। दुख की बात तदो यह है कि पाँच सितारा ऐशो-आराम में रहने वाले ये आँकड़ेबाज गरीबों की किस्मत का फैसला करते हैं। इनके बाप-दादाओं ने भी गरीबी नहीं देखी, ये क्या जानें गरीबी क्या होती है। एक शहरी व्यक्ति यदि 33 रुपए एक दिन में कमाता है तो वह गरीब नहीं है। इन सबको धक्के मार कर इनके महलों से बाहर निकालो और हाथ में 33 रुपए पकड़ा दो, कहदो कल फिर आना 33 रुपए लेने। इन अधम पापियों को यह एहसास कराना जरूरी है कि 33 रुपए में क्या आता है। यह ध्यान रखा जाए कि इनको कहीं से कोई सहायता नहीं मिले, सिर्फ 33 रुपए में दिन काटने की पाबंदी हो। चाहे सड़क पर रहो या फुटपाथ पर।