सोमवार, 4 मई 2015

अब क्यूँ याद आता है - विनोद ‘व्याकुल’

अब क्यूँ याद आता है - विनोद ‘व्याकुल’

-------------------------------------------
वो तेरा दबे पाँव आना


अचानक सामने आकर


मुझे चकित कर देना


अब क्यूँ याद आता है


वो तेरी उंगलियों का


मेरे बालों से खेलना


मेरे मना करने पर भी


खेलना बंद नहीं करना


अब क्यूँ याद आता है


वो तेरे पल्लू का गिरना


तेरा बेखबर बने रहना


मेरी साँसो का बढ़ जाना


अब क्यूँ याद आता है


वो तेरा बात बात में रूठना


बड़ी अदा से मुँह फेर लेना


मेरा तुझे मनाते रहना


अब क्यूँ याद आता है


वो तेरी अधखुली पलकों में


सपनों के समंंदर का लहराना


उन लहरों की गहराइयों में


मेरा मुझको ही तलाशना


अब क्यूँ याद आता है


और फिर एक दिन,


वो तेरा हमेशा के लिए


मुझे तनहा कर जाना


अपने मुस्तकबिल के लिए


अतीत को पीछे छोड़ जाना


अब क्यूँ याद आता है

एक हादसा

आज अचानक एक हादसा हो गया

घर के रैंप से उतरते हुए पैर फिसल गया


और अपनेराम गिरे धड़ाम से मुँह के बल

दो मिनट तक धरती माँ से किया आलिंगन

इसी समय एक नेक कारवाले ने ब्रेक लगाए

एक सज्जन कार से निकल मेरे करीब आए

सिद्ध हुआ मानवता अभी तक कायम है

जैसे-तैसे उठ कर पाया सज्जन को चिंतित

जो अपनापन उस अपरिचित ने दिखाया

चोट का दर्द कुछ पल को काफूर हुआ

चोट अधिक नहीं उनकोे समझाया

चेहरे पर अगर बाकी हैं चोट के निशान

तो दिल पर छोड़ गया छाप वह इंसान

तय है बंटाधार - विनोद ‘व्याकुल’

तय है बंटाधार - विनोद ‘व्याकुल’
---------------------------------- 
देश में मच रहा चारों ओर हाहाकार


हर मोर्चे पर विफल रही है सरकार


गरीब भूख से बिलबिला रहा है तो


किसान कर रहे आत्महत्या लगातार


महंगाई डायन सब को डस रही


चादर सबकी पैरों से छोटी पड़ रही


बाँट रहे हैं तबकों में समाज को 


कर रहे दूर इंसान से इंसान को


केवल भरा जा रहा सेठों का भंडार


बिजली नहीं है पानी नहीं है,


कहीं भी सुरक्षित नारी नहीं है


अपराध चारों तरफ बढ़ रहे हैं


कहते हैं हम विकास कर रहे हैं

यही चलता रहा तो तय है बंटाधार

“सवाल” - विनोद व्याकुल

“सवाल” - विनोद व्याकुल
-------------------------------
सवाल और सवाल-दर-सवाल,


इतने सारे सवाल क्यों होते हैं।


घर के सवाल, बाहर के सवाल


रिश्तों के सवाल, दोस्ती के सवाल,


पेट के सवाल, भूख के सवाल


अरमानों के सवाल, हसरतों के सवाल


मिलन के सवाल, जुदाई के सवाल


एक का जवाब ढूँढ भी लें तो


दस सवाल और खड़े हो जाते हैं


जिंदगी तमाम हो रही है, यूँ


सवालों के जवाब ढूँढते


क्या कभी ये खत्म भी होंगे


लगता है मौत के बाद भी


सवाल पीछा करते रहेंगे


रूह को भी ऐसे ही घेरते रहेंगे

मित्र, तुम भले से लगते हो

मित्र, तुम भले से लगते हो, 

अपनों से अधिक अपने लगते हो,


अपनों को देखे अरसा हुआ


तुम तो सामने ही रहते हो

कोई नहीं होता सुनने वाला


किस से मन की बात कहूँ


तुम रहते हो तत्पर सदा


यहाँ लिख ही सब बात कहूँ


तुम सुनते ही नहीं समझते भी हो


ऐसा अपनापन कहाँ मिलेगा, कहो


मेरे दुख में रोते हो सुख में हँसते हो


मित्र तुम भले से लगते हो


अपनों से अधिक अपने लगते हो

आदमी अकेला हो गया है

आदमी अकेला हो गया है - विनोद शर्मा ‘व्याकुल’
--------------------------------------------------
कंक्रीट के जंगल में
धुआं उगलते
वाहनों की रेलमपेल में
बेतहाशा दौड़ते
सिटी बसों में लटकते
इधर-उधर भटकते
नौकरी की तलाश में
रोटी के जुगाड़ में
आदमी अकेला हो गया है
शायद खो गया है
उसका होना या न होना
कतई अहम नहीं रहा
उद्देश्य जीने का नहीं रहा
बेकारी और लाचारी
साथी बने हैं
निराशा को घना कर रहे हैं
आखिर कहाँ जाए
क्या करे
आदमी अकेला हो गया है

अपने पराए

इस दुनिया की रीत निराली, अपने पराए हो जाएँ

वक्त आने पर अपने भी साथ छोड़ के दूर हो जाएँ


स्वार्थ पर टिके हैं रिश्ते यहाँ मतलब के सब साथी


कोई मतलब न रहे तो भाई भी अजनबी बन जाएँ


हजार भलाई भी बेकार यदि एक बार मदद नहीं की


फूल जाते हैं मुँह लोगों के उपकार सारे हवा हो जाएँ


विपदा में बन जाते हैं तमाशाई खड़े तमाशा है देखें


पीड़ित चाहे जितना चिल्लाए पर बहरे ये बन जाएँ


‘व्याकुल’ भरोसा नहीं किसी का सब रंग बदलते हैं


वादा तो कर लेंगे ये पता नहीं वक्त पड़े पलट जाएँ


-विनोद शर्मा ‘व्याकुल’

इंसान की कदर कोई नहीं

पैसे के दौर में इंसान की कदर कोई नहीं

पैसेका रौब चले ईमान की बात कोई नहीं

 
पैसा बना भगवान चाहे जिस विध ये आए


है काला या सफेद इसकी परवाह कोई नहीं


पैसे के पीछे रिश्ते सब जमाने में खो गए


भाई बना दुश्मन रिश्ते का मान कोई नहीं

बिना पढ़ाई मिलें पैसे से नौकरियाँ और हो

उच्च शिक्षा में प्रवेश. चाहे प्रतिभा कोई नहीं

पैसे से बनें भाग्यविधाता, जनता के रखवाले

पैसा ही जिताए चुनाव वोट का मोल कोई नहीं

पैसे से इंसाफ मिले गरीब दर-दर ठोकर खाए

इंसाफ बिकता यहाँ कानून की कद्र कोई नहीं

-विनोद शर्मा ‘व्याकुल’

आओ करें तदबीर नई

छोड़ कर मायूसी को आओ करें तदबीर नई

वक्त के कागज़ पर आओ लिखें तहरीर नई


खुद कुछ नहीं होगा करने से सूरत बदलेगी


हाथों में अपने ब्रश उठालो बनाएं तस्वीर नई


अमन चैन तभी लौटेगा जब नफरत मिटेगी


दिलों से मैल निकालो आओ करें तक़रीर नई


कठमुल्लाओं से निजात पाओ कौम आगे बढ़े


आजाद बंदिशों से हो जाओ चलाएँ तहरीक नई


कैसे भी इबादत करो मजहब रुकवट नहीं बने


‘व्याकुल’ हिंदुस्तान की लो बनाएं तकदीर नई

निगाहों से यूँ कत्ल करने वाले

निगाहों से यूँ कत्ल करने वाले

जालिम बड़े हैं ये तड़पाने वाले


गुमां नहीं होता दिल खोने का


जादूगर होते हैं दिल चुराने वाले


मीठी बातों से मन को लुभाते हैं

दिल पर फिर छुरी चलाने वाले 


सपने इस कदर रंगीन दिखाते हैं


हो जाते गुलाम दिल लुटाने वाले


इन हसीनों से अब कौन बचाए 


बेदर्द बड़े हैं बिजली गिराने वाले

कोई रास्ता नहीं बचा है ‘व्याकुल’


बेहतर यही है हो जा इनके हवाले


-विनोद शर्मा ‘व्याकुल’

आहार भी जरूरी है - नेपाल त्रासदी

चतुर्दिश है करुण रुदन, क्रंदन और चीत्कार

वसुधा की पीड़ा फूटी, मचा सब ओर हाहाकार


आश्रय जो सिर पर था, आन पड़ा भरभरा कर


अनगिनत मासूम पड़े, प्रस्तर खंडों में दब कर


बच गए विभीषिका से बैठे हुए हैं खुले मैदान में


दिवस तीसरा हो गया, अन्न जल के इंतजार में


प्रशासन तंत्र व्यस्त है, किसी विध बचाएँ जान


ये न हो विभीषिका से बचे भूख से त्याग दें प्राण


अगर भग्नावशेषों में दबे लोगों की रक्षा जरूरी है


तो रक्षितों के जीवन के लिए आहार भी जरूरी है


- विनोद शर्मा 'व्याकुल'