बुधवार, 25 नवंबर 2015

जिंदगी

जिंदगी भी कैसे कैसे रूप दिखाती है


हँस रहे को रुलाती रोते को हँसाती है


राह दिखाए कभी कभी ये राह भटकाए


जा रहे हों पूरब ये पश्चिम पहुँचाती है


तकदीर के भी देखो खेल कैसे निराले


ये जिंदगी ही बारहा सजा बन जाती है


बिन मांगे सब मिले मांगे से कुछ न मिले 


अनदेखा सपना भी ये सच कर दिखाती है


-विनोद ‘व्याकुल'