रविवार, 29 मई 2016

देश बदल रहा है?


देश बदल रहा है?

देश बदल रहा है, .... हाँ देश बदल रहा है
कब नहीं बदला, कहते हो कि बदल रहा है
हालात किसी के ...अभी तक नहीं बदले हैं
ये जरूर है कि ....तुम्हारा मन बहल रहा है
दिखाई कुछ नहीं दिया ..शोर बहुत सुना है
देश पहले चलता था ....अब भी चल रहा है
स्तुति गान से अपने ... देश नहीं बदलता है
देख लो कि हाल गरीब का क्या चल रहा है
जिस दिन देश में .....भूखा कोई न सोएगा
मान जाएँगे उस दिन .... देश बदल रहा है

रविवार, 22 मई 2016

भ्रष्टाचार - स्वरूप और व्यापकता

आज चारों तरफ भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग देखने को मिल रहा है। हर एक तपाक से दूसरे पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप मढ़ देता है। मैंने सोचा है कि भ्रष्टाचार की पड़ताल की जाए। समाज में इसकी जड़ों की गहराई को मापा जाए और देखा जाए कि क्या हम लोग जो किसी पर भी आसानी से भ्रष्टाचारी का लेबल चस्पा कर देते हैं, कहीं खुद तो जाने-अनजाने अपने जीवन में भ्रष्टाचार नहीं कर रहे हैं।


अपने इस प्रयास में मैंने पाया है कि भ्रष्टाचार की व्यापकता को जानने से पहले उसके अर्थ और स्वरूप को समझना जरूरी है। यह शब्द दो स्वतंत्र शब्दों की संधि से बना है- भ्रष्ट + आचार = भ्रष्टाचार। अर्थात भ्रष्ट आचरण, व्यवहार या कार्य। अपने किसी लाभ के लिए मानक व्यवहार, जो नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, कानूनी आदि किसी भी श्रेणी का हो सकता है, से इतर व्यवहार को भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा जा सकता है।

अपने परिवेश में ताक-झांक करके मुझे यह एहसास हुआ कि नैतिक रूप से गलत कामों की शुरुआत तो हमारे घरों से ही हो जाती है। बच्चा जन्म के बाद जब इस दुनिया से परिचित हो रहा होता है, परिवेश को समझने की कोशिश कर रहा होता है, उस समय वह अपने परिवार में, अपने आस-पास होने वाले क्रिया-कलापों का बहुत ही कुतूहल और तल्लीनता से अवलोकन करता है। जब बच्चे का अबोध मस्तिष्क अपने आस-पास दुहरे व्यवहार देखता है तो नैतिक मानकों के संबंध में वह उलझ कर  रह जाता है। नैतिकता उसके बाल मन में किसी महत्वपूर्ण विषय के रूप में अपना स्थान नहीं बना पाती है। 

अतः, घर ही वह पहली पाठशाला है जिसके माध्यम से बच्चे का इस दुनिया से परिचय होता है। यदि उसे अच्छे संस्कार मिलने हैं तो घर से ही मिलेंगे और यदि अनैतिकता का पाठ सीखने को मिलता है तो उसकी नींव भी घर पर ही रखी जाएगी। अपने इस प्रयास में सबसे पहले, मैंने छोटे-छोटे उद्धरणों के माध्यम से मैंने यह जानने की कोशिश की है कि छोटे बच्चों पर माता-पिता या किसी अन्य रिश्तेदार के दुहरे व्यवहार का क्या असर होता है।

आजकल बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने भ्रष्टाचार की मात्रा को लेकर छोटे भ्रष्टाचारों को अनदेखा करना और केवल बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों को ही भ्रष्टाचार मानना शुरू कर दिया है। इस प्रकार एक सीमा तक भ्रष्टाचार को मान्यता देने का प्रयास किया जा रहा है। वास्तव में भ्रष्ट आचरण नहीं भ्रष्ट आचरण करने की नीयत पर प्रश्न उठना चाहिए। भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा, अगर नीयत साफ नहीं है तो वह भ्रष्टाचार ही रहेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने से पहले स्वयं के भीतर झाँक कर देखने की जरूरत हैे कि क्या हमारे सभी आचरण भ्रष्टाचार से मुक्त हैं?


हमारा भ्रष्टाचार - (1)
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6 वर्षीया गुड़िया (मम्मी से): मम्मी, फ्रिज में एक एक ऐपल रखा है, मैं ले लूँ क्या?
मम्मी: अरे नहीं गुड़िया, उसको हाथ मत लगाना। थोड़ी देर में भैया स्कूल से थका हुआ आएगा, उसके लिए रखा है।
और, नन्हीं सी गुड़िया सोच रही है....मम्मी भैया को ही रोजाना ऐपल दे देती है और मुझे मना कर देती है....क्यों? क्या मैं उनकी बेटी नहीं हूँ?



हमारा भ्रष्टाचार - (2)


चिंटू की मां गणित की टीचर से - मैडम, बहुत दिन हो गए, आप घर नहीं आईं। इस रविवार को आप क्या कर रही हैं?
मैडम- ऐसा कुछ खास नहीं।
चिंटू की मां- तो फिर आप अपने पतिदेव के साथ इस रविवार को खाने पर आइए ना!
मैडम- अरे, आप तकल्लुफ मत करिए।
चिंटू की मां- नहीं, नहीं, इस बार तो आपको आना ही पड़ेगा। और, हाँ पिछली बार चिंटू के गणित में नंबर कम रह गए थे। इस बार जरा ध्यान रखिएगा। चलती हूँ, याद रखिएगा रविवार को शाम को आप आ रही हैं।





हमारा भ्रष्टाचार -- (3)
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अंकुश कभी भी स्वयं गृहकार्य पूर्ण नहीं कर पता था। कभी उसकी मम्मी तो कभी उसकी बड़ी बहन उसका गृहकार्य करके देती थी। दोनों की लिखाई भी अलग-अलग थी। अंकुश की ही कक्षा में पल्लवी नाम की एक छात्रा थी जो हमेशा स्वयं अपना गृहकार्य करती थी और बड़े ही सुडौल अक्षर लिखती थी। इसलिए गृहकार्य मूल्यांकन में हर साल पल्लवी को ही सबसे अधिक अंक मिलते थे।
फरवरी का महीना था, अगले दिन सभी छात्रों को अपने गृहकार्य की कॉपियाँ जमा करानी थी।
स्कूल में 
जैसे ही मध्यांतर की घंटी बजी, सब बच्चे कक्षा से बाहर की ओर भागे। अंकुश ने देखा कि पल्लवी ठीक से अपना बस्ता बंद कर के नहीं गई थी और कक्षा में उसके सिवा कोई और नहीं था। उसने लपक कर पल्लवी के बस्ते से गृहकार्य की दो कॉपियाँ निकाल ली और जल्दी से अपने बस्ते में रख कर कक्षा से बाहर चला गया।

घर आकर मां से बोला- मां इस बार देखना पल्लवी को गृहकार्य में सबसे ज्यादा अंक नहीं मिलेंगे। ये देखो!
मां ने कहा- ये क्या हैं? किसकी कॉपिया हैं?
अंकुश- मां ये पल्लवी की गृहकार्य की कॉपियां हैं। वह कल इन्हें जमा नहीं कर सकेगी और उसे अंक भी नहीं मिलेंगे।
मां - वो तो ठीक है बेटा, लेकिन अगर तुम्हारे पापा को पता चल गया तो बहुत नाराज होंगे। ऐसा कर, ये कॉपियाँ मुझे दे दे, मैं बक्से में छुपा कर रख देती हूँ।

हमारा भ्रष्टाचार - (4)
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संजना ने देखा कि पतिदेव की टीवी देखते-देखते आँख लग गई है। वह जल्दी से बगल के कमरे में गई और खूँटी पर टंगी पति की पैंट की जेब से उनका पर्स निकाल लिया। जैसे ही संजना ने पर्स में से 500 का एक नोट अपनी उंगलियों से बाहर निकाला, पीछे से उनकी 7 वर्षीया बेटी सुजला बोल उठी- हाय, ममा! ये तो चोरी हुई ना? संजना पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो। फइर संभल कर बोली- चुप कर। यह चोरी कैसे हो गई, भला? मुझे घर के काम के लिए जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम्हारे पापा से ही तो लेती हूँ। तू तो रानी बेटी है। अच्छा, वो कल तू वो कौन सी ड्रेस लाने के लिए कह रही थी? मैं आज ही तुझे वह ड्रेस दिला कर लाऊँगी। बस, तू अपने पापा से इन पैसों के बारे में कुछ मत कहना।
मासूम सुजला ने सहमति में सिर हिला दिया। सुजला का भोला मन समझ नहीं पा रहा था, कि पैसे घर खर्च के लिए चाहिए थे, तो ममा ने पापा से मांग कर क्यों नहीं लिए? बिना बताए लेना तो चोरी ही है!

हमारा भ्रष्टाचार -- (5)
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हमारे पड़ोस में शुक्ला जी रहते हैं। याद आया, संजय शुक्ला नाम है उनका। कोई 35 वर्ष की उम्र होगी। उनके एक ही बच्चा है, राहुल जिसे वे लोग शहर के एक महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं। शुक्ला जी किसी निजी कंपनी में नौकरी करते हैं, अब तक चार कंपनियाँ बदल चुके हैं, लेकिन अभी भी आय से संतुष्ट नहीं है। कुछ दिन से एक राजनीतिक दल की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं। उन्हें लगने लगा है कि एक बार राजनीति में पहचान बन गई तो भविष्य संवर जाएगा।
सुबह का वक्त था। शुक्ला जी तैयार हो रहे थे बाहर जाने के लिए। उधर टीवी पर समाचार आ रहे थे। समाचारों में कहा गया कि राष्ट्रीय जनवादी पार्टी ने आज शहर में भ्रष्टाचार के विरोध में रैली निकालने का नोटिस दिया है। शहर में सुरक्षा व्यवस्था के कड़े इंतजाम किए गए हैं।
राहुल ने शुक्ला जी से पूछा- पापा, ये भ्रष्टाचार क्या होता है और ये लोग इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
शुक्ला जी ने जवाब दिया- बेटा, भ्रष्टाचार का मतलब होता है किसी भी तरह का गलत काम। इसमें अपने फायदे के लिए झूठ बोलना, बेईमानी करना, किसी को धोखा देना, अपना काम करवाने के लिए किसी को पैसों का लालच देना जैसा हर गलत काम शामिल होता है।
राहुल ने आगे पूछा- लोग गलत काम करते ही क्यों हैं?
शुक्ला जी ने घड़ी देखी, समय हो चुका था। इसलिए राहुल से कहा कि अभी तो देर हो रही है शाम को आकर समझाएँगे। चलते-चलते पत्नी को आवाजी दी- सुनती हो,
मैं भ्रष्टाचार विरोधी रैली में जा रहा हूँ। कंपनी से अगर फोन आए तो कह देना कि गाँव से हमारे रिश्तेदार इलाज के लिए आ गए थे, उन्हें दिखाने अस्पताल गए हैं।
मासूम राहुल का दिमाग चक्कर खा रहा था। अभी पापा ने बताया था कि झूठ बोलना भी भ्रष्टाचार में शामिल होता है। फिर पापा ने मम्मी से झूठ बोलने को क्यों कहा?
                                                                                                                                                                                                                                                                         क्रमशः
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रविवार, 15 मई 2016

आशु कविता - सौंदर्य

 


सौंदर्य



सौंदर्य नहीं है मेकअप की भारी परतों में

या अंगों के कृत्रिम उभारों में,

सौंदर्य है सूर्योदय/सूर्यास्त के मनोहारी दृश्यों में

बगिया की क्यारियों में खिले पुष्पों में

सौंदर्य है आज भी हाथ में हाथ डाले

बगल से गुजर रहे वृद्ध दंपत्ति में

सौंदर्य है बच्चे की मुस्कान में

सौंदर्य है हर उस चीज में

आपके मन को जो हर्षित करे

न कि जो हर किसी को हर्षित करे

सौंदर्य है जो आप हैं वह होने में  

सौंदर्य है यही यथार्थ में।
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लघु कथा - उपहार

 


उपहार


15 मार्च - फिर एक बार जन्मदिन की सुबह आई थी। बहुत लंबा समय गुजर चुका है, जब कभी 15 मार्च का सलिल के जीवन में कोई महत्व हुआ करता था; करीब बीस वर्ष तो हो गए होंगे। इसे याद करने के लिए वह अपने दिमाग पर जोर नहीं डालना चाहता था कि आखिरी बार कब उसे जन्मदिन का कोई उपहार मिला था।
उस निर्जन सुबह जब उसकी आँख खुली, बीते पूरे साल की तरह उसे आज के दिन से भी किसी अप्रत्याशित चीज की उम्मीद नहीं थी। अपनों से दूर, इस एकाकी प्रवास में उसे किसी उपहार की प्रतीक्षा भी नहीं थी। किसी अपने का चेहरा देखे एक अरसा हो गया था। फिर भी उसका मन आज कुछ उदास था।
प्रवास के दौरान बने मित्रों में से किसी के आने की भी उसे कोई उम्मीद नहीं थी।
जब वह सोफे पर अधलेटा हुआ अपने एकाकीपन और अपनों से दूर होने के एहसास को मन से निकाल देने का प्रयास कर रहा था, तभी उसका पालतू कुत्ता उछल कर उसकी गोद में आ बैठा। उसने अपनी गहरी काली-भूरी आँखों से आत्मीयता से सलिल के चेहरे को देखा और बार-बार अपनी जीभ से उसके चेहरे को चाटने लगा। उस बेजुबान के सच्चे, निश्छल प्रेम के इस इज़हार को देख कर सलिल की आँखों से अनायास आँसू टपकने लगे। उसकी छाती भर आई और मन हल्का हो कर जैसे उड़ने लगा।
एक बेजुबान ने अपनी मासूम हरकत से उसे दिखा दिया था कि यही वह उपहार था जिसकी उसे प्रतीक्षा थी लेकिन कोई अनुमान नहीं था।

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हमारी शिक्षा प्रणाली


देश का निर्माण बच्चों से, युवाओं से होता है और बच्चे मजबूती से अपने पैरों पर खड़े हों, सर्वांगीण विकास करें, इसकी जिम्मेदारी माता-पिता के साथ ही शैक्षणिक ढाँचे की होती है। क्या हमने आजादी के बाद लगभग 70 सालों में अपनी नई पीढ़ियों को देने के लिए कोई अनुकूल शैक्षणिक ढ़ांचा तैयार किया?

सैकड़ों साल पहले लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा का जो ढ़ांचा तैयार करके दे दिया था, सभी सरकारें आज तक उसी ढ़ांचे को अपनाए हुए हैं। किसी सरकार में वह हौसला या इच्छा-शक्ति दिखाई नहीं दी कि कुछ अभिनव, हमारे देश की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ नया करने की सोचें। हमारा दुर्भाग्य है कि इस देश में शिक्षा हर सरकार की अंतिम प्राथमिकता रही है। सरकार केंद्र की हो या राज्य की, जब भी बजट में कोई कटौती करनी हो, तो कैंची सबसे पहले शिक्षा विभाग पर चलती है।

शिक्षा में भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है स्कूल शिक्षा, जिसकी हालत समूचे देश में इतनी जर्जर है कि दुनिया के अनेक पिछड़े देशों का स्तर भी हमसे कहीं आगे है। देश के निर्माण के लिए जो कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वही सर्वाधिक उपेक्षित रहा है। आज हमारी स्कूली शिक्षा क्या किसी काम की है? येन-केन-प्रकारेण परीक्षा में अंकों का उच्चतम प्रतिशत हासिल करना ही इस शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य रह गया है। कॉलेज शिक्षा में जाने के लिए ऊँचे अंक प्रतिशत की दौड़ और होड़ में छात्र, अध्यापक और कोचिंग व्यवसाय, सभी जुटे हैं। मान लीजिए, 10 प्रतिशत छात्र 90 या उससे अधिक प्रतिशत अंक प्राप्त करके उच्च शिक्षा में चले भी जाते हैं, तो शेष 90 प्रतिशत छात्रों को हम किसके भरोसे छोड़ रहे हैं? क्या उन बच्चों की देशको आवश्यकता नहीं है? क्या देश के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं होगा? तो फिर हम उनको नैराश्य और कुंठा से भरा जीवन जीने को क्यों विवश कर रहे हैं?

कोई भी सरकार विकास के चाहे जितने दावे कर ले, जब तक शैक्षिक ढांचे में आनूलचूल परिवर्तन करके बच्चों को जीवनोपयोगी शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था नहीं करती, शिक्षण अध्यव्यवसाय को एक सम्मानजनक दर्जा नहीं देती, तब तक सारा विकास बेमानी है, खोखला है, एक मरीचिका मात्र है।

मंजूर बंधन न होगा

 

मंजूर बंधन न होगा - विनोद ‘व्याकुल’----------------------------------------


उस्ताद ने एक दिन बस लपक ही लिया


बचने की न थी सूरत.. थूक गटक लिया


बोले-... मियाँ क्या ऊटपटांग लिखते हो


बहर का पता नहीं ....शायरी लिखते हो


बकवास इतना ..तुम ये जो लिख रहे हो


फ़कत शायरी की ...तौहीन कर रहे हो


बमुश्किल हिम्मत ........जरा जुटाई मैंने


अदब से अपनी .........नज़र उठाई मैंने


मैंने कहा-....... उस्ताद गलती माफ़ हो


शागिर्द के सिर पर ....हुजूर का हाथ हो


कोई गुस्ताख़ी .............मैंने की नहीं है

 
महसूस की जो ..बस बात वही लिखी है


दिल की बात कहने का भी ..कायदा है


बयां एहसास ना हो ......क्या फायदा है


निकलते हैं दिल से अल्फ़ाज ..काफ़ी है


पढ़ने वाला समझ ले ......यही काफी है


लफ्जों को मेरे ...........बाँधना चाहते हैं


क़ायदा अब मुझे .....सिखाना चाहते हैं


गुस्ताख़ी माफ हो ....ये मुझ से न होगा


लिखेगा ‘व्याकुल’ ..मंजूर बंधन न होगा

डर दिल से जाता नहीं

 

 

डर दिल से जाता नहीं - विनोद ‘व्याकुल’


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मानो या न मानो यही सच है यह कोई गल्प नहीं


हम मूर्ख नहीं मजबूर हैं हमारे पास विकल्प नहीं


होता कोई विकल्प तो हम ये परख कर देख लेते


कौन कितना था पानी में हम खुद ही ये देख लेते


हमारी मजबूरी को न समझना तुम चाहत हमारी

 
खाया मीठी बातों से धोखा फिर गई मति हमारी


दिख गए थे पाँव पालने में, उम्मीद पर थी थोड़ी

 
इतनी जल्दी खुल गई कलई आस सब तुमने तोड़ी


अब तो विष बेल फैल गई रास्ता भी सूझता नहीं


चारों तरफ सवाल हैं जवाब ही कोई मिलता नहीं


दुश्वारियाँ भी बढ़ गई हैं जिन को सहा जाता नहीं


पतवार सौंप दी तुमको मगर डर दिल से जाता नहीं

युवा, बाइक और मोबाइल





युवा, बाइक और मोबाइल



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कान और कंधे के बीच .दबा कर मोबाइल


हमारा युवा बाइक पर दिखा रहा है स्टाइल


भूल जाता है घर पर इंतजार ....माँ कर रही
 
ले सकती है जान ...एक पल की लापरवाही

हेलमेट को भी बस .....कंधे पर लटकाता है

दिखाने की ये चीज नहीं .सिर को बचाता है

सड़क को रेस का एक .मैदान समझ रहा है

खतरों से गाफिल युवा ..मौत से खेल रहा है
 
बिना हेलमेट, बाइक पर .जो फोन करता है

हो सकता अपाहिज या .जान गंवा सकता है

-विनोद ‘व्याकुल’

उल्टा चश्मा



उल्टा चश्मा
 
 
आजकल लोगों ने खिड़कियाों को दिमाग की बंद कर लिया हैं

और खुद को उत्तर या दक्षिण पंथ से ......प्रतिबद्ध कर लिया है

नहीं रहे खुले मन से सोचने वाले ..................सब पूर्वाग्रहित हैं

सीधा किसी को दिखता ही नहीं ......चश्मा उल्टा लगा लिया है

-विनोद ‘व्याकुल’

हिसाब जिंदगी का




हिसाब जिंदगी का

 

हिसाब जिंदगी का .....कभी भी समझ न आया


जोड़ना चाहा जब ............नतीजा बाकी आया


गणित में होते होंगे ,,,,,,,,.....,,,दो जमा दो चार


हमने तो कभी तीन ...........कभी पाँच ही पाया


रिश्तों का जब .........प्यार से गुणा करना चाहा


बंट गया भाग में ....,,,,,..और शेष सिफर आया


कलन अवकलन फलन कुछ भी सही नहीं हुआ


चर अचर हो गए ........अचर को गतिमान पाया


क्रिया की प्रतिक्रिया का ....वो नियम न्यूटन का


गलत निकला बदले प्यार के .......प्यार न पाया


-विनोद ‘व्याकुल’

आशु कविताएँ

 

 

कुछ खोट तो जरूर है

समझाओगे जो मान लेगी जनता मजबूर है
नीयत पे तुम्हारी मगर सब को ही शक जरूर है
कितने जुमले, कितने झांसे कितने वादे किए
सब के सब झूठे निकले कहीं तो खोट जरूर है
-विनोद ‘व्याकुल’

लौटा दे तू जो भी लिया है


दिवस के जैसे चार पहर होते हैं
जिंदगी के भी चार पहर होते हैं
दो पहर तो जीवन के बीत चुके हैं
तीसरा पहर है ....साये से झुके हैं 
चौथा पहर वो चिर निद्रा का होगा
पड़ाव अंतिम वो जिंदगी का होगा 
गणित जिंदगी का समझ न आया
सोच रहा हूँ क्या खोया क्या पाया 
दिया कम जमाने से ज्यादा लिया है
‘व्याकुल’ लौटा दे तू जो भी लिया है
-विनोद ‘व्याकुल’