बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

असली शत्रु कौन है? पाकिस्तान या चीन?


असली शत्रु कौन है? पाकिस्तान या चीन?


क्या पाकिस्तान की इतनी औक़ात या सामर्थ्य है कि वह भारत को आँखें दिखा सके? देश में पाकिस्तान के विरुद्ध भावनात्मक उफान आया हुआ है। लेकिन भावनाओं से काम नहीं चलता है। आइए विषय को गहराई से समझने का प्रयास करते हैं।
उड़ी में भारतीय सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा हमला होता है।
हमारे पास इसका जवाब देने के लिए ये विकल्प उपलब्ध थे- 1. पाकिस्तान की आर्थिक नाकेबंदी करना. 2. भारत से पाकिस्तान में जाने वाले नदियों के जल को रोकना 3. पाक अधिकृत कश्मीर के क्षेत्र में आतंकियों के ठिकानों को चुन कर सर्जिकल स्ट्राइक (लक्षित आक्रमण) करना। हमने तीसरा विकल्प चुना, भारत पाकिस्तान पर खुला आक्रमण करने की स्थिति में नहीं है।
बास पच्चीस साल पहले तक पाकिस्तान ने इतनी शिद्दत से कश्मीर का राग नहीं अलापा था जितना पिछले कुछ सालों से वह कर रहा है। इसका मूल कारण है उसकी पीठ पर चीन का हाथ होना, चीन की ओर से अभयदान मिलना- कि भारत को अस्थिर करने, तंग करने के लिए वह जो चाहे कर सकता है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का आक्रामक रुख इसलिए भी है, ताकि भारत उसके कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से को छुड़ाने के बारे में सोचे भी नहीं।


पाक-अधिकृत कश्मीर, बलोचिस्तान और बाल्टिस्तान से होकर चीन का महत्वाकांक्षी चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर गुजरता है। आज यूरोप, मध्यपूर्व या अफ्रीका से व्यापारिक माल का आवागमन भारत सहित कई आसियान देशों का चक्कर काट कर होता, जो चीन के लिए बहुत महंगा सिद्ध हो रहा है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडर पीरा हो जाने के बाद, चीन द्वारा विकसित किया जा रहा ग्वादर बंदरगाह अरब सागर में चीन के व्यापार का प्रमुख केंद्र होगा। यदि कश्मीर के भारतीय भाग पर कब्जा हो जाए चीन के लिए यह कॉरीडोर हमेशा के लिए सुरक्षित हो जाएगा। चीन का यह व्यापारिक हित ही सारी समस्या का मूल है। जब से चीन ने इस कॉरीडोर का निर्माण आरंभ किया है, वह पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध हर तरह की मदद दे रहा है। वर्ना पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तो इतनी जर्जर है कि वह इतने आतंकी संगठनों का खर्चा कहाँ से वहन करता? चीन जानता है कि भारत कभी भी एक साथ पाकिस्तान और चीन दोनों से युद्ध में उलझना नहीं चाहेगा।
पाकिस्तान कितना बहादुर है यह हम 1965 और 1971 के युद्धों में देख चुके हैं। 1971 में तो उसने अपने पूर्वी भाग को ही आसानी से हाथ से चले जाने दिया था। यही नहीं, सन 1950 में जब कश्मीर का मामला गर्मागरम था, उस समय भी पाकिस्तान ने कश्मीर के बदले पूर्वी पाकिस्तान को छोड़ने की पेशकश की थी।
हमें इसे अच्छी तरह से समझना होगा कि यह कोई कश्मीरियों के प्रति पाकिस्तान के प्रेम का मामला नहीं है। कश्मीर में पाकिस्तान से अधिक चीन की रुचि है। पर्दे के पीछे से चीन सारी चालें चल रहा है और आगे पाकिस्तान को कर रखा है।

      चीन के कशगार से पाकिस्तान के बलोचिस्तान में ईरान की सीमा के निकट अरब सागर में स्थित बंदरगाह ग्वादर तक के इस कॉरीडोर में हाइवे और तीव्रगति के रेल मार्गों का निर्माण चीन कर रहा है। आइए देखते हैं कि यह कॉरीडोर आखिर है क्या?
पाकिस्तान में उत्तर से दक्षिण तक चार भिन्न मार्गों पर एक्सप्रेस-वे, सभी मुख्य रेल-मार्गों का 160 किमीप्रघं की गति में उन्नयन। कराची से ग्वादर और हैदराबाद तक छह से आठ लेन का एक सुपर एक्सप्रेस-वे, पूरे पाकिस्तान में अनेक कोयला, ताप, सौर और पनबिजली के पॉवर प्लांट इस कॉरीडोर में शामिल हैं। एक अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे, स्कूलों, कॉलेजों, तकनीकी संस्थानों यहाँ तक कि लाहौर में मेट्रो लाइन सहित ग्वादर बंदरगाह का स्पूर्ण निर्माण चीन कर रहा है।
अब स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि कश्मीर का इससे क्या संबंध है? चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला कराकोरम मार्ग कश्मीर के गिलगित बाल्टिस्तान क्षेत्र से हो कर गुजरता है, जिस पर पाकिस्तान ने अवैध कब्जा किया हुआ है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि जम्मू और कश्मीर के पूर्वी व उत्तरी भाग – शक्सगाम घाटी, (जिसे 1960 के दशक में पाकिस्तान ने चीन को भेंट कर दिया था)  और अक्साई चिन (जिस पर चीन ने तिब्बत पर अधिकार करते समय कब्जा कर लिया था) पर चीन का अवैध कब्जा है।
पाकिस्तान और चीन के बीच यह कॉरीडोर गिलगिट, बाल्टिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरता है। कराकोरम मार्ग का निर्माण 1959 में आरंभ हुआ था जिसे 1979 में खोला गया था। आरंभ में पाकिस्तान ने ग्वादर तक चीन को पहुँच प्रदान करने से मना कर दिया था, लेकिन बाद में पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था में मदद और सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर-कर के चीन ने पाकिस्तान को इस कदर अपने चंगुल में ले लिया कि अब पाकिस्तान के पास यह मार्ग चीन को सौंप देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था।
कशगार-ग्वादर कॉरीडोर का केवल व्यापारिक महत्व ही नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ा कारण है खाड़ी के देशों के तेल मार्गों से निकटता। ग्वादर मस्कट से मात्र 400 किमी और होरमूज़ से 500 किमी। इसके अलावा अफ्रीका जिसके बहुत बड़े भाग में चीन ने खरबों डॉलर का निवेश कर रखा है और वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों को खरीदता है, वह भी निकट ही है। इससे अधिक लाभदायक स्थिति चीन के लिए और क्या हो सकती है?
चीन पाकिस्तान को अपने सस्ते माल के लिए एक बड़े बाजार के रूप में विकसित कर रहा है। चीन अपने सस्ते माल से पाकिस्तान और खाड़ी को पाट देगा और मोटा मुनाफा कमाएगा। चीन का नया बना मित्र श्रीलंका भी वहाँ से नजदीक ही है। अब अगर अमरीका/ब्रिटेन सिंगापुर के निकट मलक्का की खाड़ी को या भारत हिंदमहासागर को चीन के जहाजों के लिए अवरुद्ध कर भी देते हैं, तब भी चीन के पास ग्वादर बंदरगाह होगा। लेकिन यह सब तब होगा जब कराकोरम मार्ग जो पाक अधिकृत कश्मीर से हो कर जाता है निर्बाध रहे और यह तभी संभव है जब कश्मीर के उस भाग पर पाकिस्तान का कब्जा बना रहे।
चीन अभी तक पाकिस्तान में 50 अरब अमरीकी डॉलर लगा चुका है। इस प्रकार अब पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत चीनी है। देखा जाए तो पाकिस्तान अब चीन का 24वाँ प्रांत बन चुका है।
ऐसी स्थिति में अगर युद्ध हो जाए तो भारत का साथ कौन देगा? अमरीका की दोगली नीतियों से सारा विश्व परिचित है। अमरीका के साथ वर्तमान सरकार की बढ़ती नजदीकियों के कारण रूस अब पहले की तरह भारत का समर्थन नहीं करने वाला, वैसे भी पुतिन के लिए अपने घर में ही समस्याएँ कम नहीं हैं। अन्य यूरोपीय देशों को इस क्षेत्र की उथल-पुथल से कुछ लेना देना नहीं है।
अब एक उद्दंड पडौसी के रूप में पाकिस्तान की खुराफातों को सहते रहना भारत की नियति बन गई है, क्योंकि पाकिस्तान नहीं असल में शत्रु चीन है जो पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रख कर अपने हित साध रहा है। अगर भारत पाकिस्तान से कश्मीर का उसके कब्जे वाला हिस्सा वापस छीन लेता है तो चीन का सपना कभी पूरा नहीं होगा। कराकोरम मार्ग कभी पूरा नहीं बन सकेगा।
अब भारत को सोच समझ कर अपनी रणनीति तय करनी होगी जिससे पाकिस्तान की आड़ में छुपे हुए अपने प्रमुख शत्रु चीन का मुकाबला कर सके।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

मुक्ति


मुक्ति
 – विनोद शर्मा ‘व्याकुल’
मनुष्य के जीवन का संध्याकाल ही संभवतः उसके जीवन का सबसे कठिन समय होता है। इस अवस्था के आते-आते शारीरिक शक्तियों का क्षय प्रारंभ हो चुका होता है और विचार शक्ति अपने उच्चतम स्तर पर होती है। जीवन के विभिन्न सोपानों से प्राप्त अनुभवजन्य ज्ञान का संचय अब चीजों को देखने-समझने की एक नई दृष्टि प्रदान करता है। इससे पूर्व जीवन की उठापटक में कभी किसी चीज को प्रत्यक्ष पहलू से इतर किसी अन्य दृष्टिकोण से देखने या परखने का अवसर ही नहीं मिला होता है।
एक विचित्र स्थिति होती है- अतिशय परिश्रम से थकी हुई देह में चरम क्रियाशील मस्तिष्क को हर बात के विभिन्न पहलुओं को देखने-समझने-परखने का समय मिलता है। इस बदली हुई परिस्थिति में पहली बार उसे अनुभव होता है कि वह अनेक अनावश्यक बंधनों में जकड़ा हुआ है- जैसे वह किसी यांत्रिक प्रक्रिया का एक अंग मात्र बन कर रह गया है। वह अपने अस्तित्व को ढूँढने लगता है तो पाता है कि उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। उसकी दिनचर्या में जितनी भी गतिविधियाँ शामिल हैं उनका नियंत्रण उसके स्वयं के हाथ में नहीं है। मस्तिष्क जितना ज्यादा सोचता है, उतनी ही यह स्थिति उसे अखरने लगती है। एकाएक, संभवतः जीवन में पहली बार वह अपने अंदर एक छटपटाहट को जन्म लेते देखता है- मुक्त होने की छटपटाहट, बंधनों को तोड़ कर स्वतंत्र होने की कुलबुलाहट!
इसी प्रसंग में पांडे जी का किस्सा याद आता है, जिनका पूरा नाम तो गिरधर प्रसाद पांडे था लेकिन मुहल्ले भर में सब उन्हें पांडे जी के नाम से ही जानते थे। पांडे जी के बारे में कई बातें किंवदंतियों के रूप में प्रसिद्ध थी। पांडे जी प्रादेशिक प्रशासनिक सेवा के एक उसूलों के पक्के, ईमानदार और न्यायप्रिय अधिकारी रहे थे। ऐसे व्यक्ति प्रायः लोकप्रिय नहीं होते हैं, किंतु पांडे जी के मामले में ऐसा नहीं था। वे अत्यंत मिलनसार, मृदुभाषी और हँसमुख प्रकृति के व्यक्ति थे। उनका सुखी परिवार था, बच्चे सब अपने-अपने जीवन में व्यवस्थित हो चुके थे। उन्हें सेवानिवृत हुए दो वर्ष हो चुके थे। कुछ दिनों से वे अपनी प्रकृति और स्वभाव के विपरीत ध्यानमग्न, गंभीर और एकांतप्रिय से हो चले थे।
एक दिन पार्क में टहलते हुए, मैंने पूछ ही लिया, “पांडे जी, पिछले कुछ दिनों में आपके अंदर उल्लेखनीय परिवर्तन नजर आ रहा है। आपका वो हँसना-हँसाना, हर किसी से तपाक से मिलना और उसकी कुशल-क्षेम लेना आजकल कहीं नजर नहीं आता। क्या कोई परेशानी है?”
पांडे जी ने एक लंबी सांस लेते हुए, दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया, “मनुष्य का जीवन क्या है – बंधनों का एक जाल है। जीवन में कितने बंधन उसे जकड़े हुए हैं, शायद ठीक से उसे पता भी नहीं होता है।”
मेरे सीधे प्रश्न के उत्तर में यह असंबद्ध उक्ति सुन कर, उनके इस दार्शनिक अंदाज का कारण जानने की मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने उनकी ही बात को सूत्र बना कर पूछा, “क्या बात है, पांडे जी, इन दिनों किसी दार्शनिक का कोई ग्रंथ तो नहीं पढ़ रहे हैं?”
पांडे जी ने अहले वाले अंदाज में ही, सामने आकाश में सूर्यास्त के बाद छाई लालिमा के बीच कहीं नजरें जमाए हुए जवाब दिया, “शर्मा जी, अब समय मिला है तो वे बातें स्पष्ट होने लगी हैं जिन पर विचार करने की हमने कभी जरूरत भी नहीं समझी थी। आप भी तो इसी अवस्था से गुजर रहे हैं, क्या आपने अपने जीवन, अपनी दिनचर्या, जीवन के भांति-भांति के बंधनों आदि पर कभी विचार नहीं किया है? क्या आपका मन में एक मुक्त, स्वतंत्र जीवन बिताने की इच्छा जागृत नहीं होती है?”
अब बात कुछ-कुछ मेरी समझ में आने लगी थी। अपने पेशागत, सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों का निष्ठा से निर्वाह करने के बाद, अब शायद उन्हें अपने बारे में सोचने का समय मिला है और उनके अंदर का व्यक्ति अपनी इच्छा से, अपने अनुसार जीवन जीने के लिए छटपटा रहा है। अभी तक का जीवन तो दूसरों के लिए समर्पित रहा था, अब वह मुक्त होने के लिए, परवाज भरने के लिए अपने पंख फड़फड़ा रहा है।
अंधेरा घिर आया था, इसलिए मैंने भी बात को विराम देने के आशय से उनकी बात का समर्थन करते हुए कह दिया कि हाँ, मुझे भी लगभग इसी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं।
इसके बाद, कुछ ऐसा संयोग हुआ कि लगभग दो महीने तक उनसे पार्क में मिलना नहीं हो सका। पारिवारिक कार्यों से मेरा अधिकतर समय यात्राओं में ही बीता। जब मैंने फिर से पार्क जाना शुरू किया तो एक सप्ताह निकल गया लेकिन पांडे जी एक दिन भी नजर नहीं आए। मुझसे रहा नहीं गया, पांडे जी के पड़ोसी गुप्ता जी नजर आए तो मैंने पूछ ही लिया, “गुप्ता जी, आजकल पांडे जी नजर नहीं आ रहे हैं, क्या बात है, उनका स्वास्थ्य तो ठीक है?”
गुप्ता जी तपाक से बोले, ׅ“अरे! शर्मा जी, क्या आपको पता नहीं? पांडे जी तो वानप्रस्थी हो गए हैं। पिछले महीने की बात है, पूरे परिवार को इकट्ठा कर के घोषणा कर दी कि देखो, मैंने सारा जीवन सबके लिए सब कुछ किया है। अब मैं शेष जीवन अपनी मर्जी से, अपने अनुसार जीना चाहता हूँ। उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्रवधु, पुत्री-दामाद, हर किसी ने उन्हें लाख समझाया कि आप घर में भी तो अपनी मर्जी से जो चाहें कर सकते हैं। आपके किसी काम, किसी गतिविधि पर परिवार के किसी सदस्य को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन पांडे जी तो जैसे भीष्म-प्रतिज्ञा कर चुके थे। अगले ही दिन, उनके घर के सामने एक टैक्सी खड़ी थी। परिवार के सभी सदस्य रो रहे थे और पांडे जी ने दो सूटकेस टैक्सी में रखे तथा वहाँ एकत्रित पड़ोसियों और परिवार के लोगों की तरफ हाथ जोड़ कर टैक्सी में बैठ गए। उनकी पत्नी ने खिड़की में मुँह डाल कर सुबकते हुए अनुरोध किया, “आप जहां भी रहें, कम से कम अपनी कुशलता का समाचार तो देते रहना।” और इस तरह से पांडे जी अज्ञात स्थान को चले गए।”
गुप्ता जी के चुप होने पर, मेरे मुँह से आगे कोई प्रश्न नहीं निकला। मेरे दिमाग में तो जैसे आँधियाँ सी चल रही थीं। पांडे जी आखिर कैसी मुक्ति या स्वतंत्रता चाहते थे? जिस परिवार के प्रति सारा जीवन पूरी निष्ठा से अपने दायित्वों का पालन किया, इसी परिवार को त्याग कर उहें कौन सी मुक्ति हासिल होगी? मैं भारी कदमों से घर लौट आया था। कई दिन तक मन खिन्न सा रहा। फिर बात आई-गई हो गई। हाँ, पार्क में कभी-कभी गुप्ता जी से पांडे जी का समाचार मिल जाता था, जैसे अब वे कानपुर में हैं, अब वे वाराणसी चले गए हैं, फिर पता चला वे कोलकता पहुँच गए थे।
एक दिन अचानक मेरे फोन की घंटी बजी, मैंने फोन उठाया तो पांडे जी का चहकता स्वर सुनाई दिया, “शर्मा जी, कैसे हैं? आपको पता है! मुझे अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया है। मुझे एक परमज्ञानी गुरू मिल गए हैं। अब मैं मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ा हूँ।”
मैंने बेमन से ही उनको आगाह किया, “पांडे जी, वह तो ठीक है, लेकिन क्या आपने पूरी जाँच पड़ताल कर ली है कि जिन्हें आपने गुरू बनाया है, वे वास्तव में साधु या संत ही हैं?”
पांडे जी ने इस बार जवाब दिया तो मुझे उनके स्वर में एक प्रकार की लड़खड़ाहट सी अनुभव हुई, “आप निश्चिंत रहिए, बहुत पहुँचे हुए महात्मा हैं। यहां आकर मेरा तो जीवन सफल हो गया।” बात पूरी होते-होते मुझे यकीन हो गया था कि पांडे जी शराब या किसी अन्य नशे के प्रभाव में बात कर रहे थे। मेरे अंदर से एक अदृश्य आवाज आ रही थी कि पांडे जी किसी गलत व्यक्ति के चंगुल में फँस गए हैं।
उसी शाम, पार्क में गुप्ता जी से मुलाकात हुई, तो मैंने उनसे कहा कि मुझे पांडे जी के घर ले चलें, कुछ जरूरी बातें करनी हैं। हम दोनों पांडे जी के घर पहुँचे, तो संयोग से उनके पुत्र और पुत्रवधु भी घर पर मिल गए। मैंने पांडे जी से फोन पर हुई बातचीत के बारे में बताने के बाद उन लोगों से अनुरोध किया कि किसी तरह से पांडे जी को वापस बुला लीजिए। मुझे यह आशंका हो रही है कि वे शायद गलत लोगों के चंगुल में फँस गए हैं। पांडे जी के बेटे राजेश ने बताया कि वे सब तो हर तरह का प्रयास कर चुके हैं। पांडे जी किसी की नहीं सुनते हैं, उन के सिर पर तो जैसे मुक्ति का भूत सवार है। फिर भी मैंने उन लोगों को हिदायत दी कि अगर अगले दो-चार दिन में पांडे जी का कोई संदेश न मिले तो उनकी लोकेशन का पता लगा कर, उनहें एक बार वहां जा कर प्रयास करना चाहिए।
उस बात को मुश्किल से दो सप्ताह ही हुए होंगे, कि एक दिन जैसे ही सुबह का अखबार उठाया तो उसमें बंगाल पुलिस की ओर से एक विज्ञप्ति छपी थी जिसमें फटे हुए कपड़ों में, बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ पांडे जी की तस्वीर छपी थी और बताया गया था कि यह व्यक्ति जो अपना नाम गिरधर प्रसाद पांडे बताता है सुंदरवन में वनरक्षकों को व्यक्ति को बेहोशी की अवस्था में मिला था। यह मानसिक रूप से असंतुलित लगता है। अपने बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं दे पा रहा है। बड़बड़ाहट में उसके मुँह से एक दो बार जयपुर का नाम सुना गया है। अतः स विज्ञापन के माध्यम से इस व्यक्ति के परिजनों से अपील की जाती है कि इस व्यक्ति को पहचानने वाले कृपया नीचे दिए गए फोन नंबरों पर संपर्क करें।
मैं अखबार हाथ में लिए हुए ही सीधा पांडे जी के घर पहुँचा, तो वहाँ उनके पुत्र राजेश और पड़ोसी गुप्ता जी भी वही अपबार हाथ में लिए अति चिंतित नज़र आ रहे थे। उसी समय दिए गए फोन नंबरों पर बात की गई और बंगाल पुलिस के अधिकारी को पांडे जी का पूरा परिचय दिया गया। उनकी तरफ से कहा गया कि आप लोग आकर इन्हें ले जाएँ। फैसला हुआ कि राजेश और पांडे जी के दामाद आज की फ्लाइट से कोलकता जाएँगे।
मैं भारी कदमों से घर लौट रहा था और सोच रहा था कि इस मुक्ति के दुष्चक्र में कितने लोग अपनी जिंदगियाँ तबाह और बर्बाद कर चुके हैं। मुक्ति कोई भौतिक उपल्ब्धि नहीं है, यह तो एक मानसिक अवस्था है जिसे कहीं भी रह कर प्राप्त किया जा सकता है।      
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रविवार, 29 मई 2016

देश बदल रहा है?


देश बदल रहा है?

देश बदल रहा है, .... हाँ देश बदल रहा है
कब नहीं बदला, कहते हो कि बदल रहा है
हालात किसी के ...अभी तक नहीं बदले हैं
ये जरूर है कि ....तुम्हारा मन बहल रहा है
दिखाई कुछ नहीं दिया ..शोर बहुत सुना है
देश पहले चलता था ....अब भी चल रहा है
स्तुति गान से अपने ... देश नहीं बदलता है
देख लो कि हाल गरीब का क्या चल रहा है
जिस दिन देश में .....भूखा कोई न सोएगा
मान जाएँगे उस दिन .... देश बदल रहा है

रविवार, 22 मई 2016

भ्रष्टाचार - स्वरूप और व्यापकता

आज चारों तरफ भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग देखने को मिल रहा है। हर एक तपाक से दूसरे पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप मढ़ देता है। मैंने सोचा है कि भ्रष्टाचार की पड़ताल की जाए। समाज में इसकी जड़ों की गहराई को मापा जाए और देखा जाए कि क्या हम लोग जो किसी पर भी आसानी से भ्रष्टाचारी का लेबल चस्पा कर देते हैं, कहीं खुद तो जाने-अनजाने अपने जीवन में भ्रष्टाचार नहीं कर रहे हैं।


अपने इस प्रयास में मैंने पाया है कि भ्रष्टाचार की व्यापकता को जानने से पहले उसके अर्थ और स्वरूप को समझना जरूरी है। यह शब्द दो स्वतंत्र शब्दों की संधि से बना है- भ्रष्ट + आचार = भ्रष्टाचार। अर्थात भ्रष्ट आचरण, व्यवहार या कार्य। अपने किसी लाभ के लिए मानक व्यवहार, जो नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, कानूनी आदि किसी भी श्रेणी का हो सकता है, से इतर व्यवहार को भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा जा सकता है।

अपने परिवेश में ताक-झांक करके मुझे यह एहसास हुआ कि नैतिक रूप से गलत कामों की शुरुआत तो हमारे घरों से ही हो जाती है। बच्चा जन्म के बाद जब इस दुनिया से परिचित हो रहा होता है, परिवेश को समझने की कोशिश कर रहा होता है, उस समय वह अपने परिवार में, अपने आस-पास होने वाले क्रिया-कलापों का बहुत ही कुतूहल और तल्लीनता से अवलोकन करता है। जब बच्चे का अबोध मस्तिष्क अपने आस-पास दुहरे व्यवहार देखता है तो नैतिक मानकों के संबंध में वह उलझ कर  रह जाता है। नैतिकता उसके बाल मन में किसी महत्वपूर्ण विषय के रूप में अपना स्थान नहीं बना पाती है। 

अतः, घर ही वह पहली पाठशाला है जिसके माध्यम से बच्चे का इस दुनिया से परिचय होता है। यदि उसे अच्छे संस्कार मिलने हैं तो घर से ही मिलेंगे और यदि अनैतिकता का पाठ सीखने को मिलता है तो उसकी नींव भी घर पर ही रखी जाएगी। अपने इस प्रयास में सबसे पहले, मैंने छोटे-छोटे उद्धरणों के माध्यम से मैंने यह जानने की कोशिश की है कि छोटे बच्चों पर माता-पिता या किसी अन्य रिश्तेदार के दुहरे व्यवहार का क्या असर होता है।

आजकल बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने भ्रष्टाचार की मात्रा को लेकर छोटे भ्रष्टाचारों को अनदेखा करना और केवल बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों को ही भ्रष्टाचार मानना शुरू कर दिया है। इस प्रकार एक सीमा तक भ्रष्टाचार को मान्यता देने का प्रयास किया जा रहा है। वास्तव में भ्रष्ट आचरण नहीं भ्रष्ट आचरण करने की नीयत पर प्रश्न उठना चाहिए। भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा, अगर नीयत साफ नहीं है तो वह भ्रष्टाचार ही रहेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने से पहले स्वयं के भीतर झाँक कर देखने की जरूरत हैे कि क्या हमारे सभी आचरण भ्रष्टाचार से मुक्त हैं?


हमारा भ्रष्टाचार - (1)
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6 वर्षीया गुड़िया (मम्मी से): मम्मी, फ्रिज में एक एक ऐपल रखा है, मैं ले लूँ क्या?
मम्मी: अरे नहीं गुड़िया, उसको हाथ मत लगाना। थोड़ी देर में भैया स्कूल से थका हुआ आएगा, उसके लिए रखा है।
और, नन्हीं सी गुड़िया सोच रही है....मम्मी भैया को ही रोजाना ऐपल दे देती है और मुझे मना कर देती है....क्यों? क्या मैं उनकी बेटी नहीं हूँ?



हमारा भ्रष्टाचार - (2)


चिंटू की मां गणित की टीचर से - मैडम, बहुत दिन हो गए, आप घर नहीं आईं। इस रविवार को आप क्या कर रही हैं?
मैडम- ऐसा कुछ खास नहीं।
चिंटू की मां- तो फिर आप अपने पतिदेव के साथ इस रविवार को खाने पर आइए ना!
मैडम- अरे, आप तकल्लुफ मत करिए।
चिंटू की मां- नहीं, नहीं, इस बार तो आपको आना ही पड़ेगा। और, हाँ पिछली बार चिंटू के गणित में नंबर कम रह गए थे। इस बार जरा ध्यान रखिएगा। चलती हूँ, याद रखिएगा रविवार को शाम को आप आ रही हैं।





हमारा भ्रष्टाचार -- (3)
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अंकुश कभी भी स्वयं गृहकार्य पूर्ण नहीं कर पता था। कभी उसकी मम्मी तो कभी उसकी बड़ी बहन उसका गृहकार्य करके देती थी। दोनों की लिखाई भी अलग-अलग थी। अंकुश की ही कक्षा में पल्लवी नाम की एक छात्रा थी जो हमेशा स्वयं अपना गृहकार्य करती थी और बड़े ही सुडौल अक्षर लिखती थी। इसलिए गृहकार्य मूल्यांकन में हर साल पल्लवी को ही सबसे अधिक अंक मिलते थे।
फरवरी का महीना था, अगले दिन सभी छात्रों को अपने गृहकार्य की कॉपियाँ जमा करानी थी।
स्कूल में 
जैसे ही मध्यांतर की घंटी बजी, सब बच्चे कक्षा से बाहर की ओर भागे। अंकुश ने देखा कि पल्लवी ठीक से अपना बस्ता बंद कर के नहीं गई थी और कक्षा में उसके सिवा कोई और नहीं था। उसने लपक कर पल्लवी के बस्ते से गृहकार्य की दो कॉपियाँ निकाल ली और जल्दी से अपने बस्ते में रख कर कक्षा से बाहर चला गया।

घर आकर मां से बोला- मां इस बार देखना पल्लवी को गृहकार्य में सबसे ज्यादा अंक नहीं मिलेंगे। ये देखो!
मां ने कहा- ये क्या हैं? किसकी कॉपिया हैं?
अंकुश- मां ये पल्लवी की गृहकार्य की कॉपियां हैं। वह कल इन्हें जमा नहीं कर सकेगी और उसे अंक भी नहीं मिलेंगे।
मां - वो तो ठीक है बेटा, लेकिन अगर तुम्हारे पापा को पता चल गया तो बहुत नाराज होंगे। ऐसा कर, ये कॉपियाँ मुझे दे दे, मैं बक्से में छुपा कर रख देती हूँ।

हमारा भ्रष्टाचार - (4)
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संजना ने देखा कि पतिदेव की टीवी देखते-देखते आँख लग गई है। वह जल्दी से बगल के कमरे में गई और खूँटी पर टंगी पति की पैंट की जेब से उनका पर्स निकाल लिया। जैसे ही संजना ने पर्स में से 500 का एक नोट अपनी उंगलियों से बाहर निकाला, पीछे से उनकी 7 वर्षीया बेटी सुजला बोल उठी- हाय, ममा! ये तो चोरी हुई ना? संजना पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो। फइर संभल कर बोली- चुप कर। यह चोरी कैसे हो गई, भला? मुझे घर के काम के लिए जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम्हारे पापा से ही तो लेती हूँ। तू तो रानी बेटी है। अच्छा, वो कल तू वो कौन सी ड्रेस लाने के लिए कह रही थी? मैं आज ही तुझे वह ड्रेस दिला कर लाऊँगी। बस, तू अपने पापा से इन पैसों के बारे में कुछ मत कहना।
मासूम सुजला ने सहमति में सिर हिला दिया। सुजला का भोला मन समझ नहीं पा रहा था, कि पैसे घर खर्च के लिए चाहिए थे, तो ममा ने पापा से मांग कर क्यों नहीं लिए? बिना बताए लेना तो चोरी ही है!

हमारा भ्रष्टाचार -- (5)
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हमारे पड़ोस में शुक्ला जी रहते हैं। याद आया, संजय शुक्ला नाम है उनका। कोई 35 वर्ष की उम्र होगी। उनके एक ही बच्चा है, राहुल जिसे वे लोग शहर के एक महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं। शुक्ला जी किसी निजी कंपनी में नौकरी करते हैं, अब तक चार कंपनियाँ बदल चुके हैं, लेकिन अभी भी आय से संतुष्ट नहीं है। कुछ दिन से एक राजनीतिक दल की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं। उन्हें लगने लगा है कि एक बार राजनीति में पहचान बन गई तो भविष्य संवर जाएगा।
सुबह का वक्त था। शुक्ला जी तैयार हो रहे थे बाहर जाने के लिए। उधर टीवी पर समाचार आ रहे थे। समाचारों में कहा गया कि राष्ट्रीय जनवादी पार्टी ने आज शहर में भ्रष्टाचार के विरोध में रैली निकालने का नोटिस दिया है। शहर में सुरक्षा व्यवस्था के कड़े इंतजाम किए गए हैं।
राहुल ने शुक्ला जी से पूछा- पापा, ये भ्रष्टाचार क्या होता है और ये लोग इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
शुक्ला जी ने जवाब दिया- बेटा, भ्रष्टाचार का मतलब होता है किसी भी तरह का गलत काम। इसमें अपने फायदे के लिए झूठ बोलना, बेईमानी करना, किसी को धोखा देना, अपना काम करवाने के लिए किसी को पैसों का लालच देना जैसा हर गलत काम शामिल होता है।
राहुल ने आगे पूछा- लोग गलत काम करते ही क्यों हैं?
शुक्ला जी ने घड़ी देखी, समय हो चुका था। इसलिए राहुल से कहा कि अभी तो देर हो रही है शाम को आकर समझाएँगे। चलते-चलते पत्नी को आवाजी दी- सुनती हो,
मैं भ्रष्टाचार विरोधी रैली में जा रहा हूँ। कंपनी से अगर फोन आए तो कह देना कि गाँव से हमारे रिश्तेदार इलाज के लिए आ गए थे, उन्हें दिखाने अस्पताल गए हैं।
मासूम राहुल का दिमाग चक्कर खा रहा था। अभी पापा ने बताया था कि झूठ बोलना भी भ्रष्टाचार में शामिल होता है। फिर पापा ने मम्मी से झूठ बोलने को क्यों कहा?
                                                                                                                                                                                                                                                                         क्रमशः
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रविवार, 15 मई 2016

आशु कविता - सौंदर्य

 


सौंदर्य



सौंदर्य नहीं है मेकअप की भारी परतों में

या अंगों के कृत्रिम उभारों में,

सौंदर्य है सूर्योदय/सूर्यास्त के मनोहारी दृश्यों में

बगिया की क्यारियों में खिले पुष्पों में

सौंदर्य है आज भी हाथ में हाथ डाले

बगल से गुजर रहे वृद्ध दंपत्ति में

सौंदर्य है बच्चे की मुस्कान में

सौंदर्य है हर उस चीज में

आपके मन को जो हर्षित करे

न कि जो हर किसी को हर्षित करे

सौंदर्य है जो आप हैं वह होने में  

सौंदर्य है यही यथार्थ में।
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लघु कथा - उपहार

 


उपहार


15 मार्च - फिर एक बार जन्मदिन की सुबह आई थी। बहुत लंबा समय गुजर चुका है, जब कभी 15 मार्च का सलिल के जीवन में कोई महत्व हुआ करता था; करीब बीस वर्ष तो हो गए होंगे। इसे याद करने के लिए वह अपने दिमाग पर जोर नहीं डालना चाहता था कि आखिरी बार कब उसे जन्मदिन का कोई उपहार मिला था।
उस निर्जन सुबह जब उसकी आँख खुली, बीते पूरे साल की तरह उसे आज के दिन से भी किसी अप्रत्याशित चीज की उम्मीद नहीं थी। अपनों से दूर, इस एकाकी प्रवास में उसे किसी उपहार की प्रतीक्षा भी नहीं थी। किसी अपने का चेहरा देखे एक अरसा हो गया था। फिर भी उसका मन आज कुछ उदास था।
प्रवास के दौरान बने मित्रों में से किसी के आने की भी उसे कोई उम्मीद नहीं थी।
जब वह सोफे पर अधलेटा हुआ अपने एकाकीपन और अपनों से दूर होने के एहसास को मन से निकाल देने का प्रयास कर रहा था, तभी उसका पालतू कुत्ता उछल कर उसकी गोद में आ बैठा। उसने अपनी गहरी काली-भूरी आँखों से आत्मीयता से सलिल के चेहरे को देखा और बार-बार अपनी जीभ से उसके चेहरे को चाटने लगा। उस बेजुबान के सच्चे, निश्छल प्रेम के इस इज़हार को देख कर सलिल की आँखों से अनायास आँसू टपकने लगे। उसकी छाती भर आई और मन हल्का हो कर जैसे उड़ने लगा।
एक बेजुबान ने अपनी मासूम हरकत से उसे दिखा दिया था कि यही वह उपहार था जिसकी उसे प्रतीक्षा थी लेकिन कोई अनुमान नहीं था।

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