वही तो पाएगा जो बोया है - विनोद शर्मा ‘व्याकुल’
जिंदगी आसान तो कभी
न थी,
मगर इतनी दुश्वार भी न थी।
बचपन बेशक अभावों
में बीता,
संस्कार मगर हरदम ही
जीता।
अपना पेट काट कर
हमें पालते,
माता-पिता को देखा
हमें चाहते।
उनके बुढ़ापे में बारी
अपनी आई,
जी भर सेवा की और
दुआ पाई।
आजके नौजवान ये क्या
करते हैं,
माँ-बाप को जो बोझ समझते
हैं।
इस कदर बचकानी दलील
देते हैं,
समय नहीं है कहके मुँह
छुपाते हैं।
भूल गए माँ ने वह
पीड़ा सही थी,
सह न सका आज तक नर कभी।
गीले में सोई उसे सूखे
में सुलाया,
भूखी रह कर उसे सदा
खिलाया।
आज उपेक्षित पड़ी है
एक कोने में,
दिन कटता है सिसकने
में रोने में।
सिखाया था चलना,
खाना, बोलना,
पिता के बस में नहीं
मुँह खोलना।
नराधम को नहीं पता क्या
खोया है,
‘व्याकुल’ वही तो पाएगा
जो बोया है।