बुधवार, 25 नवंबर 2015

जिंदगी

जिंदगी भी कैसे कैसे रूप दिखाती है


हँस रहे को रुलाती रोते को हँसाती है


राह दिखाए कभी कभी ये राह भटकाए


जा रहे हों पूरब ये पश्चिम पहुँचाती है


तकदीर के भी देखो खेल कैसे निराले


ये जिंदगी ही बारहा सजा बन जाती है


बिन मांगे सब मिले मांगे से कुछ न मिले 


अनदेखा सपना भी ये सच कर दिखाती है


-विनोद ‘व्याकुल'

मंगलवार, 23 जून 2015

चंद अशआर

(1)
कभी मिलो पास बैठो कुछ बात करो
बेगानगी तुम्हारी अब सही जाती नहीं
(2)
हमारे बाद अंधेरा होगा महफिल में
बहुत चराग जलाओगे रोशनी के लिए
(3)
अब जब बात ठन ही गई है
देखें वो पहले आते हैं या मौत
(4)
उनका गुरूर और हमारी वफ़ा मुकाबिल है
जान भी जाए गम नहीं उल्फत के खेल में
(5)
कोशिशें तमाम नाकाम हो गई हैं
खयाल उनका दिल से जाता नहीं
(6)
हसरत-ए-दीदार में जान अटकी है
पका फल हूँ जाने कब टपक जाऊँ
(7)
गुजर तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन
बहुत उदास बहुत बे-क़रार गुजरेगी
(8)
पैदा हुए और सीखा उड़ना जहाँ पे
लौटकर शजर पे बच्चे आते नहीं
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सोमवार, 22 जून 2015

कुछ अशआर

(1)
न कोई तमन्ना की न कोई हसरत ही पाली
जिंदगी बस चलती रहे खुशी हो या बदहाली
(2)
रहनुमा हैं हमारे यही सोच कर
हर सितम उनका हम सह गए
(3)
रोटी पानी की बात कोई नहीं करता है
पेट सबके भरे हैं शायद ऐसा लगता है
(4)
गरीब की आवाज कहाँ कोई सुनता है
चमक दमक में सब खो गए लगता है
(5)
दुख इतने झेल रही बेचारी जनता है
सो गया निजाम शायद ऐसा लगता है

(6)
बहुत हुआ चलो अब एक काम करते हैं
मुद्दों की तरफ से आँख बंद कर लेते हैं

(7)
नमाज बख्शवाने चले थे, रोजे गले पड़ गए
जैसे-तैसे कुएं से निकले थे खाई में गिर गए

(8)
बदनसीबी हमारी हमें कहाँ ले आई है
पहरुआ ही हमारा निकला हरजाई है

(9)
कलप रहे हैं जिसने भी आस लगाई है
बहुत देर से उनको यह समझ आई है

(10)
हम लड़खड़ाते हैं मैखाने से निकलते हुए 
हुक्काम लड़खड़ाते हैं देश को चलाते हुए
बढ़ेे जा रहे हैं राज को तमाशा बनाते हुए
बहा रहे हैं पैसा ये खुद की शान बढ़ाते हुए

(11)
वक्त ऐसा आज ये आया है
सच पे पड़ा झूठ का साया है

(12)
गैर-मुद्दों पर सब हल्ला मचा रहे हैं
सीधे-सीधे अपराधियों को बचा रहे हैं



रविवार, 21 जून 2015

समय का पहिया

समय का पहिया चलता ही जाए

खुशी में दौड़े ये दुख में रुक जाए

जिंदगी के ऊबड़ - खाबड़ हैं रास्ते

लाख संभलो ठोकर लग ही जाए

पर उपकार चाहे जितने कर लीजै

निर्दयी फिर भी जमाना कहे जाए

जोड़ जोड़ कर संभालो रिश्तों को

पता नहीं कब कौन कयों रूठ जाए

खून पसीना एक करो जिनके लिए

औलाद वो कब छोड़ कर चली जाए

सुख आता है जैसे सावन की धूप

दुख की काली रात लंबी होती जाए

‘व्याकुल’ दुखी सब इस दुनिया में

कोई हँस कर सहे कोई रोता  जा

गुरुवार, 18 जून 2015

मेरी कश्मीर यात्रा


पहला दिन – 11 जून 2015

        
घर से जयपुर के हवाई अड्डे के लिए निकले ही थे कि झमाझम बरसात शुरू हो गई। मन ने कहा, इंद्रदेव ने प्रसन्न होकर शुभ संकेत दिया है। हवाई अड्डे पर पहुँचे तो पता चला कि मौसम खराब होने के कारण दिल्ली के लिए स्पाइसजेट की उड़ान जो 8.20 पर रवाना होनी थी अब 8.50 पर रवाना होगी। कोई बड़ी दिक्कत वाली बात नहीं थी इसलिए इसे सहज रूप में ही लिया। खैर, उड़ान 9 बजे रवाना हुई और करीब 9.40 पर दिल्ली के पालम हवाई अड्डे के आकाश में विमान मंडराने लगा। विमान के पायलट ने घोषणा की कि दिल्ली में विमानों की भारी आवक के कारण वायु याततायात नियंत्रक (एटीसी) ने हमें लैंड करने के लिए 10.30 का समय दिया है। पूरे 45 मिनट तक विमान दिल्ली-गुड़गाँव के ऊपर मंडराता रहा, तब जाकर हवाई अड्डे पर उतरा। दिल्ली से श्रीनगर की उड़ान दोपहर बाद 3.25 पर थी, अतः पालम हवाई अड्डे पर ही अगले 4 घंटे भोजन और आराम किया। यहाँ हवाई अड्डे पर मिलने वाली चाय कॉफी के अप्रत्याशित और चमत्कारिक मूल्यों की चर्चा करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है।

दिल्ली से श्रीनगर की उड़ान समय पर छूटी और हम 4.55 पर श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतर गए थे। कोई आधा घंटा लगेज लेने में लगा होगा, बाहर निकले तो भ्रमण प्रबंधक का वाहन चालक हाथ में तख्ती लिए तैयार खड़ा था। उसने सूचित किया कि हमें सीधे पहलगाम के लिए निकलना है। हमने कारगिल-स्कार्दू राष्ट्रीय राजमार्ग 1डी पर यात्रा आरंभ की। शहर से बाहर निकलते हुए इस राजमार्ग को 4-लेन का करने के लिए चल रहा निर्माण कार्य और अवैध निर्माणों को हटाए जाने पर खाली हुई जमीन दिखाई दी। ड्राइवर रफीक ने बताया कि पिछले कई वर्षों ने अवैध निर्माण करके राजमार्ग 1डी को बहुत संकरा कर दिया था। सोनवर से झेलम नदी राजमार्ग 1डी के साथ-साथ बहती दिखाई दी। नदी के किनारों की हरियाली बहुत सुहानी लग रही थी। झेलम नदी का प्रवाह मार्ग सर्पिलाकार है। सोनवर के बाद बटवारा, पानी मंदिर, आदि पर राजमार्ग के निकट आती हुई झेलम अथवागन पर दूर हो गई। डीपीएस स्कूल के सामने राष्ट्रीय राजमार्ग 1डी राजमार्ग 1ए में मिल गया। आगे अवंतीपुर में अवंतीस्वर मंदिर और उसके बाद अवंती स्वामी मंदिर के भग्नावशेष  मिले। बताया जाता है कि राजा अवंतिपुर ने 883-885 में दो भव्य मंदिरों का निर्माण किया था, एक अवंतिस्वामी (विष्णु) और दूसरा अवंतीस्वर (शिव) का। कालांतर में किसी शक्तिशाली भूकंप में ये मंदिर ध्वस्त हो गए।
          

अवंतीस्वर मंदिर के भग्नावशेष


पाम्पोर
  

  इस मार्ग पर कश्मीरी देहात से साक्षात्कार हुआ। मार्ग के दोनों और नजर डालते हुए कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि देश के किसी अन्य भाग से यह किसी तरह से अलग है। विकास की हवा अभी इन देहातों को छू नहीं पाई है। आतंकवाद प्रभावित या अशांत कश्मीर का जो मिथक शेष भारतीयों के मनों में बैठा है वह टूटता सा लगा। जो पहला उपनगरीय कस्बा आया वह पंपोर था। प्राचीन काल से ही केसर के व्यापार के लिए प्रसिद्ध रहे पंपोर में केसर सहित सूखे मेवों का एक बड़ा बाजार है। कहा जाता है कि केवल पंपोर में ही आपको असली केसर मिल सकता है, क्योंकि अधिकतर केसर विक्रेताओं के अपने केसर के बागान हैं। पंपोर यूँ तो मुसलिम कस्बा है लेकिन इसके बीचोंबीच एक मंदिर आज भी स्थित है। पंपोर में ही सर्वाधिक प्राचीन मस्जिदों में से एक, खानकाह-ए-आलिया या खानकाह-ए-मसूदिया है जिसे पंपोर की केंद्रीय जामा मस्जिद कहा जाता है। यह पूरी लकड़ी की बनी हुई है। केसर बाजार में ही कश्मीर का कहवा पीने को मिला जिसमें सुगंधित मसालों के अतिरिक्त पिसे हुए बादाम भी डले थे।

केसर

केसर बाजार, पाम्पोर
















पंपोर से आगे बढ़े तो बिजबिहारा और संगम तक विलो के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की कतारें मानो हमारा स्वागत कर रही थीं। इसी क्षेत्र में स्थित है कश्मीर का क्रिकेट बल्ला निर्माण उद्योग, जो आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। यहीं के बने बल्लों का इस्तेमाल कभी सुनील गावस्कर, वीरेंद्र सहवाग जैसे धुरंधर खिलाड़ियों ने किया था।

    
बैट उद्योग

पूरे रास्ते सड़क किनारे बैट बनाए जाने के लिए काटी गई लकड़ियों का ढेर लगा था। बैट के आकार में काटी गयी लकड़ियाँ सूखने के लिए रखी गई थीं। कश्मीरी विलो मुलायम लेकिन मजबूत होते हैं। इस कारण यहां के बैट की क्वालिटी उम्दा होती हैं।
नामलाबल में बेक की हुई कशमीरी रोटी गिरदा भी देखने को मिली, जिसे शीरमाल भी कहा जाता है। इस रोटी का प्रयोग प्रायः शादियों और धार्मिक उत्सवों में किया जाता है। इसके अलावा नदरू (कमल के फूल की जड़) की पकौड़ी जैसा खाद्य और नदरू के कबाब भी खूब बिक रहे थे। 

पहलगांव के रास्ते में लिड्‌डर नदी और लिड्डर घाटी की सुंदरता का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसे महसूस करने के लिए आपको यहाँ आना ही पड़ेगा। नदी के किनारे खूबसूरत घर देखकर बड़ा रश्क हो रहा था। घर के सामने लॉन। लॉन के सामने कलकल बहती नदी। नदी में क्रिस्टल नीला पानी। बैक ड्रॉप में फ़िर पहाड़। पहाड़ पर बर्फ़। ऐसी जगह कौन नहीं रहना चाहेगा। 
बिजबिहारा का पादशाही बाग प्रसिद्ध है जिसमें दुनिया का सबसे मोटे तने (व्यास 70 फुट) वाला चिनार का वृक्ष है। मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और क्रिकेटर परवेज रसूल यहीं से हैं। इसके बाद एक महत्वपूर्ण स्थल और आया ‘संगम’। हिमालय के पहाड़ों से बर्फ के पिघलने से उत्पन्न हिम-जल बहता हुआ आकर यहाँ वितस्ता या झेलम में मिलता है।
                                                           
अब तक चारों तरफ अँधेरा पसर चुका था। रास्ते में कुछ आया भी होगा तो देख नहीं पाए। 8.30 के करीब पहलगाम में प्रवेश किया तो सोचा होटल जाने से पहले शुद्ध शाकाहारी जैन भोजन कर लिया जाए। अब तो यह एक आदत सी बन गई है। श्रीमतीजी प्याज या लहसुन नहीं खाती हैं, तो भ्रमण पर जहाँ भी जाना होता है, सबसे पहले जैन-भोजन का ठिकाना खोज लिया जाता है। पहलगाम से चंदनबाड़ी मार्ग के आरंभ में ही ऐसा एक रेस्तरां मिल गया और वहाँ भोजन करके रात लगभग 9 बजे हमने होटल में शरण ली।
                                                   
                                             पहलगाम का होटल
  




दूसरा दिन   12 जून 2015  

सवेरे उठते ही होटल के सामने वाले पहाड़ों पर सूर्यदेव की किरणों में चमकती बर्फ की चादर देख कर मन झूम उठा। असल में पहाड़ों में आने वाले सैलानियों को जो चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है बर्फ। योजनानुसार आज पहलगाम और उसके आसपास के क्षेत्रो का भ्रमण करना था। सुबह 8 बजे से ही दो पोनी (टट्टू) वाले आकर होटल में उपस्थित हो गए थे। रात को यहाँ का तापमान 9 डिग्री सेल्सियस था जिसने वास्तविक सर्दी का एहसास करा दिया। सुबह भी अच्छी खासी ठंड थी। इसलिए होटल से 9 बजे बाद ही निकलना संभव हो सका।

पोनी की सवारी का भी अलग ही रोमांच होता है। पहाड़ों के ऊबड़-खाबड़ मार्गों पर चलते समय साँस थमती सी लगती है। चढ़ाई पर यदि आगे की तरफ और उतरते समय पीछे की तरफ झुक कर न बैठें तो गिरने की संभावना हमेशा बनी रहती है। पहाड़ों पर पोनी (यहाँ के लोग इन्हें घोड़े कहना पसंद करते हैं) पर बैठ कर सीधी चढ़ाई पर चढ़ना या कभी सीधे ढलान पर उतरना वाकई रोमांचारी रहा। कभी-कभी तो सामने 2-ढाई फुट ऊँचा अवरोध आया, घोड़ा एक बार ठिठका तो हमारा मन आशंकित हो उठा कि अब यह आगे नहीं बढ़ेगा या कहीँ उछल कर अवरोध पार किया तो क्या संतुलन बनाए रखना संभव होगा। लेकिन हमारी तमाम आशंकाओं को निर्मूल करते हुए दोनों घोड़ों ने बड़ी आसानी से, सवार को जरा सा भी झटका दिए बगैर वे अवरोध पार कर लिए। इसी प्रकार जब कभी तीखी ढलान पर घोड़ा उतरता था तो हम अंदर ही अंदर सहम जाते थे, लेकिन घोड़े अत्यंत सधे हुए और प्रशिक्षित थे। पगडंडियाँ, मोटे पत्थरों वाले रास्ते या दलदल, कैसा भी मार्ग हो उन घोड़ों को अपने रास्तों का ज्ञान था।
                                                    घोड़ों की सवारी
पहाड़ों के शीर्ष पर पहुँच कर कभी नीचे नगरों के विहंगम दृश्य तो कभी सुरम्य घाटियाँ, सामने धूप में चाँदी के समान चमकते धवल पर्वत शिखर। कुल मिला कर पाँच घंटे तक घोड़ों पर सवारी की। पहला अनुभव होने और अभ्यास न होने के कारण लौटते समय घुटनों में थोड़ी तकलीफ जरूर अनुभव हो रही थी। लेकिन यह थकान उस अविस्मरणीय अनुभव के सामने कुछ भी नहीं थी, जो आज इन वादियों में हमने पाया। मुख्य रूप से तीन बिंदु दर्शनीय बताए गए थे, कश्मीर वैली, पहलगाम वैली और बैसरन। पहले हम पहुँचे कश्मीर वैली। पहाड़ के शिखर से घाटी का शानदार दृश्य दिखाई दे रहा था।
कश्मीर वैली


पहलगाम वैली
                                                  बैसरन - मिनी स्विट्जरलैंड


घुड़सवारी करते हुए हम आ पहुँचे थे ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ कहे जाने वाले बैसरन में। बैसरन पहलगांव शहर से 5 किलोमीटर दूर है। यहां पहुंच कर आप सारा डर और पोनी राइड की तकलीफ़ एक पल में भूल जाएंगे। सामने मानो कुदरत का कैनवाश हो। बहुत बड़ा घास का मैदान। चारों और नीले पहाड़। बर्फ़ से ढकी सफ़ेद चोटियां। लंबे-लंबे देवदार के दरख़्त। प्रकृति की सुंदरता देखकर एकबारगी हम सब स्तब्ध थे। बॉलीवुड के निर्देशकों की यह पसंदीदा जगह रही है। 1990 तक यहां फिल्मों की खूब शूटिंग होती थी। साठ से अस्सी के दशक तक यहां आरज़ू, कश्मीर की कली, जब जब फ़ूल खिले, कभी-कभी, सिलसिला, सत्ते पे सत्ता, रोटी जैसी सुपरहिट फ़िल्मों की शूटिंग हुई।
किसी समय पहलगाम चरवाहों का एक छोटा सा गाँव हुआ करता था। मुगलों के शासनकाल के दौरान, यह केवल चरवाहों का गाँव था। आज हम यहाँ के  भोजन, कपड़े, और स्थानीय लोगों की जीवन शैली में इस जगह की समृद्ध संस्कृति की झलक पा सकते हैं। आज पहलगाम कश्मीर का प्रमुख पर्यटन आकर्षण है, जहाँ भरी गर्मी में, इस जून के महीने में भी हिमाच्छादित पर्वतमालाएँ पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। अमरनाथ श्राइन बोर्ड के पर्यासों से अमरनाथ यात्रा को सुगम बनाने के लिए चंदनबाड़ी तक पक्के सड़क मार्ग तैयार हो जाने से पहलगाम में पर्यटन काफी बढ़ा है।

घोड़ों पर पर्वतों की सैर करने के बाद हमारा अगला लक्ष्य चंदनबाड़ी ही था, किंतु इसके लिए घोड़ों की जरूरत नहीं थी। पहलगाम के पर्यटक टैक्सी स्टैंड से नियत किराये पर टैक्सी मिलती हैं। हमने आरू, बेताब वैली और चंदनबाड़ी के लिए एक टैक्सी ली। पहलगाम से आरू के रास्ते में - बाएं लिद्दर बह रही है और दाएं पहला पठार घास-फूलों से ढका है। उसी की कमर पर से पतला रास्ता जा रहा है। जगह-जगह घनी कंटीली झाड़ियां हैं। पत्थरों की उभरी हुई रेखा उस पतले रास्ते की दिशा बता रही है। नदी का शोर घोड़े की टापों के साथ जैसे पार्श्व संगीत का काम कर रहा है। दूर छूटे हुए पहलगाम की चहल-पहल ऐसे खो गई, जैसे किसी ने दरवाजा बन्द करके किसी फैक्टरी के बाहर निकाल दिया हो। लिद्दर की धार में लकड़ी के लट्ठे बहते हुए चले आ रहे हैं। मंडराते, चकराते और सीधी धार में पड़ते ही शीशे की सतह पर फिसलते-से। पर रास्ता इतना ऊपर चढ़ गया है कि उसका कोलाहल ऊपर तक नहीं आता। नीचे गति है, दृश्य हैं और चट्टानों से टकराती धार है। तैरते हुए जल-पक्षियों की पंक्तियाँ हैं। मौन खड़े वन हैं...या चट्टानों की आड़ में रुककर दम लेते हुए लकड़ी के लट्ठे हैं। जल-फेन के तैरते हुए सफेद फूलों के गुच्छे हैं। अवरोध से टकराकर छिटके हुए जल-बीज हैं। पर सब निःस्वर, आवाज़हीन। जैसे एकाएक सिनेमा में आवाज़ बन्द हो गई हो। सबसे पहले हमने रुख किया आरू का। 
पर्यटन स्थल आरू















आरू घाटी
आरू एक सुरम्य हरा-भरा घास का मैदान है जो हरे भरे पहाड़ों से घिरा है। यह स्थल इन दिनों इसलिए भी चर्चा में है कि पिछले महीने ही सलमान खान की निर्माणाधीन फिल्म बजरंगी भाई जान की शूटिंग यहाँ हुई है।
  आड़ू से हमने सीधा रुख किया चंदनबाड़ी का। पहलगाम से रवना होने वाली अमरनाथ यात्रा का पहला धार्मिक पड़ाव चंदनबाड़ी है। चंदनबाड़ी के विषय में मान्यता है कि जब भगवान शिव देवी पार्वती को अमर कथा सुनाने जा रहे थे तब इस स्थान पर अपने माथे और शरीर पर लगा हुआ चंदन उतार कर रख दिया।
चंदनबाड़ी            
भगवान शिव के माथे पर शोभा बना चंदन जब यहां लगा तो ये स्थान शिवमय हो गया है। माना जाता है कि यहीं पर भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण चन्द्रमा को भी उतारकर रखा था। चन्द्रमा ने यहीं पर शिव के लौटकर आने का इंतजार किया था।
चंदनबाड़ी पहुँचते ही प्लास्टिक के बूट और पुलओवर वालों ने घेर लिया कि बर्फ पर चलने के लिए इनकी जरूरत पड़ेगी। इस यात्रा में पहली बार, ऐसा हुआ कि हम उन के चंगुल में फंस गए और लंबे बूटों और लबादों का वज़न लाद कर हमने वहाँ जमी हुई बर्फ पर चल कर, कुछ दृश्यों को कैमरे में कैद किया और भारी मन से बूटों और लबादों का किराया चुका कर वापली राह पकड़ी।
मार्ग में ही पड़ी बेताब वैली। किसी जमाने में सनी देओल की मशहूर फिलम बेताब की यहाँ शूटिंग हुई थी। तब से ही इस घाटी का नाम बेताब वैली पड़ गया। मनोहारी दृश्य है, शेषनाग झील से आती तीव्र जल धारा, देवदार, चीड़ के ऊँचे वृक्षों की कतारें और ऊपर हिमाच्छादित चोटियाँ। यह स्थल इतना मनोहारी है कि वहाँ से हटने का मन ही नहीं होता। यहाँ अब तक अनेक फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। 2011 में इम्तियाज़ अली की "रॉक स्टार" के साथ यहां दोबारा जोर-शोर से शूटिंग शुरू हुई थी। हाल ही में सलमान खान की ‘बजरंगी भाईजान’ की शूटिंग भी यहाँ हुई है।
बेताब वैली

श्याम को होटल पहुँचे तो दिन भर की थकान हावी हो चुकी थी। होटल में विश्राम करना ही सबसे अच्छा विकल्प सूझा। कल 13 जून को एक और हिमाच्छादित स्थल सिंथन टॉप जाने का कार्यक्रम है। 

तीसरा दिन -  13 जून 2015

कल का दिन काफी थका देने वाला रहा था, इसलिए आज देर तक सोए। भारी नाश्ता किया और होटल से चेक आउट कर लगभग 10 बजे टवेरा के स्थान पर इनोवा गाड़ी से सिंथन टॉप के लिए रवाना हुए। सिंथन टॉप की 135 किलोमीटर की दूरी को देखते हुए यह तय किया गया कि मार्ग में पड़ने वाले स्थानों को लौटते समय देखा जाएगा। अतः मट्टन, अनंतनाग, अचबल, कोकेरनाग, दक्सुम होते हुए सिंथन टॉप तक अल्पाहार के अलावा कहीँ नहीं रुके।
कोकेरनाग से दाकसुन तक सड़क धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रही थी, जिसका बाहर न देखें तो खास अनुभव नहीं हो रहा था। दक्सुम से पहाड़ों पर एकदम सीधी चढ़ाई आरंभ हो गई। समुद्र तल से 8500 फुट की ऊँचाई पर स्थित दक्सुम से 37 किलोमीटर की लगातार चढ़ाई के दौरान अंधे मोड़ों वाले रोमांचक सर्पिलाकार सड़क मार्ग से सिंथन टॉप पहुँचने से काफी पहले से ही मार्ग के एक ओर चट्टानों पर जमी बर्फ मिलने लगी थी।
सिंथन टॉप


सड़क से दिखाई देने वाले सभी पहाड़ों पर इस प्रकार बर्फ जमी हुई थी कि हरे और सफेद रंग की चित्ताकर्षक आकृतियाँ एक सम्मोहन सा उत्पन्न कर रही थीं। चारों और, यहाँ-वहाँ बर्फ के साथ अंततः जब हम सिंथन टॉप पर पहुँचे तो वहाँ का नजारा देख कर दंग रह गए। दूर-दूर तक, जहाँ तक नजर जाती थी, बर्फ ही बर्फ थी। पर्यटकों के लिए सुविधा के नाम पर, जहाँ से बर्फ आरंभ हो रही थी, वहीं पर एक तंबू में केवल चाय और स्नैक्स उपलब्ध थे।

वहाँ मौजूद बर्फ पर दूर-दूर, छोटे-छोटे समूहों में फैले पर्यटकों की संख्या कोई 50-60 रही होगी। हम दोनों भी बर्फ पर संभल कर चलते हुए दूर तक, काफी ऊँचाई पर पहुँच गए थे। उन अविस्मणीय लम्हों को कैमरे में कैद किया। कल हम चंदनबाड़ी में बूट और ओवरकोट के नाम पर 800 रुपए की चपत खा चुके थे, इसलिए आज सोच कर आए थे कि आज ऐसी किसी चीज पर अपव्यय नहीं करेंगे, लेकिन यहाँ ऐसी कोई सुविधा या साधन उपलब्ध ही नहीं थे। हम अपने सामान्य वस्त्रों और जूते-चप्पलों में ही बर्फ पर आसानी से चल रहे थे। तापमान शून्य के आसपास ही होगा, ऊपर से हवा शरीर को अंदर तक वेध रही थी। फिर भी, बर्फ के उस विस्तार से नीचे उतरने को मन नहीं कर रहा था। एकाएक सूर्य-देव भी प्रकट हो गए, धूप खिलते ही कंपकंपा देने वाली ठंड से थोड़ी राहत मिली। जी भर कर हिम-भ्रमण करने के बाद आखिर वापस तो लौटना ही था।
सिंथन टॉप

यहाँ आकर पहली बार अनुभव हुआ कि कश्मीर को स्वर्ग क्यों कहा जाता है। संभवतः सिंथन टॉप जैसे मनोहारी, आत्मा को गहराई तक तृप्त करने वाले स्थलों के कारण ही इसे स्वर्ग की उपमा दी गई होगी। सिंथन टॉप के प्राकृतिक सौंदर्य का पर्यटन के लिए अभी तक दोहन नहीं किया गया है, जबकि इसका उपयोग कश्मीर के सर्वश्रेष्ठ पर्यटक आकर्षण के रूप में बखूबी किया जा सकता है। समुद्र-तल से 12,500 फुट की ऊँचाई पर स्थित यह हिमाच्छादित स्थल अपने मूल प्राकृतिक स्वरूप में साल के छह महीने पर्यटकों के लिए एक प्रकार से बंद ही रहता है, क्योंकि जगह-जगह पर मार्ग बर्फ से अवरुद्ध हो जाता है।
एक आत्मिक संतोष के साथ हमने वापसी यात्रा आरंभ की। इस बार 37 किलोमीटर की ढलान जल्दी ही पार हो गई। दक्सुन से नीचे आकर पहला पड़ाव हुआ कोकेरनाग में, जो अनंतनगाग जिले की ब्रेंग घाटी में स्थित एक उप-जिला नगर है। इसकी समुद्र-तल से ऊँचाई लगभग 6,500 फुट है। कोकेरनाग नाम के पीछे अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से अधिक उपयुक्त यह है कि घने वृक्षों से आच्छादित पहाड़ से एक झरना निकलता है जो मुर्गे के पंजे की भाँति पाँच शाखाओं में विभक्त हो जाता है। अर्थात कोकेर (मुर्गा) + नाग (झरना), कोकेरनाग पड़ा।
कोकेरनाग उद्यान

कोकेरनाग अपने सुंदर पराकृतिक उद्यानों, कश्मीर में ताजा पानी के झरनों के सबसे बड़े स्रोत और उत्तरी भारत के ट्राउट मत्स्य पालन के सबसे बड़े केंद्र के रूप में प्रसिद्ध है। आइने-अकबरी में भी इसका जिक्र है कि कोकेरनाग का जल भूख और प्यास दोनों मिटाता है तथा अपच के लिए एक औषधि है।
हमने कोकेरनाग के विशाल प्राकृतिक उद्यान में कुछ समय बिताया। आज शनिवार होने के कारण विभिन्न विदयालयों की छात्राएँ यूनीफॉर्म में आई हुई थीं। इस उद्यान में गुलाब की अनेक किस्में देखने को मिली। मुख्य आकर्षण था प्राकृतिक झरना जिसके मार्ग में पाइप लाइनें लगा कर उसके जल का पेय जल के रूप में प्रयोग। उद्यान के प्रवेश द्वार के सामने एक ओर बच्चों और लड़कियों के उपयोग के सामानों की दुकानों की कतार थी। सभी दुकानों के सामने तारों की जाली लगी थी और मध्य में सामान या पैसे के लेन-देन के लिए छोटा सा स्थान बना हुआ था।

कोकेरनाग उद्यान
              
कोकेरनाग से आगे बढ़े तो अचबल में रुके। अचबल का मुख्य आकर्षण यहाँ का मुगल गार्डन है। इस बग़ीचे के पहले हिस्से को बाग-ए-बेगम अबद  के नाम से जाना जाता है। इस बगीचे को नूरजहाँ ने बनवाना शुरू करवाया था और इसे पूरा शाहजहाँ की पुत्री जहाँआरा ने 1620 में करवाया। कहा जाता है कि यह गार्डन नूरजहाँ की पसंदीदा आरामगाह था। मुगल गार्डन देख कर हम आगे बढ़ गए।

मुगल गार्डन अचबल

इस मार्ग पर अगला नगर आया मट्टन, जिसका नाम मार्तंड का अपभ्रंश बताया जाता है। मार्तंड का अर्थ होता है सूर्य। मट्टन में आठवीं शताब्दी के सूर्य मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। यहाँ एक विशाल शिव मंदिर भी है। 

सूर्य मंदिर, मट्टन
शिव मंदिर, मट्टन

शिव मंदिर के दर्शन कर हम आगे बढ़े तो जा पहुँचे कश्मीर का इस्लामाबाद कहे जाने वाले शहर अनंतनाग में। अनंतनाग कश्मीर के सबसे बड़े जिलों में से एक है। अनंतनाग सरोवरों के अतिरिक्त मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों के लिए भी जाना जाता है।

मार्तण्ड सूर्य मंदिर अनंतनाग नगर में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है। मार्तण्ड का यह मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है। यहाँ पर सूर्य की पहली किरन के साथ ही मंदिर में पूजा अर्चना का दौर शुरू हो जाता है। मंदिर की उत्तरी दिशा से खूबसूरत पर्वतों का नज़ारा भी देखा जा सकता हैं। यह मंदिर विश्व के सुंदर मंदिरों की श्रेणी में भी अपना स्थान बनाए हुए है। इस मंदिर का निर्माण कर्कोटक वंश से संबंधित राजा ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा करवाया गया था। यह मंदिर सातवीं-आठवीं शताब्दी पूर्व का है। यह मंदिर कश्मीरी हिंदू राजाओं की स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना है। कश्मीर का यह मंदिर वहाँ की निर्माण शैली को व्यक्त करता है। इसके स्तंभों में ग्रीक सरंचना का इस्तेमाल भी करा गया है।

अनंतनाग शहर भी कश्मीर का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। बेतरतीब यातायात व्यवस्था के शिकार इस नगर में एक चक्कर लगाकर हम श्रीनगर की ओर बढ़ गए, लेकिन अनंतनाग से श्रीनगर तक लगातार ट्रैफिक-जाम में फंस कर हम रात दस बजे जाकर श्रीनगर पहुँच पाए थे।

अनंतनाग
 मार्ग में जम्मू-कश्मीर खादी बोर्ड के अधिकृत स्टोर से वस्त्रों आदि की खरीद की और पाम्पोर के केसर-बाजार से केसर तथा कुछ मेवे भी खरीदे। डल-झील के निकट होटल के कमरे में देर रात भोजन करने के बाद इस वृत्तांत का लेखन हो रहा है।  




मेरी कश्मीर यात्रा -4  :  14 जून 2015 
काफी प्रयत्न करने के बाद भी प्रातः लगभग 10 बजे ही होटल से निकलना हो सका। आज हमारा लक्ष्य गांदरबल जिले में स्थित सोनमर्ग, जोजीला दर्रा और थाजीवास ग्लेशियर देखना था। श्रीनगर से निकल कर श्रीनगर-लेह मार्ग पर जैसे ही गांदरबल शहर में प्रवेश किया, यातायात के लंबे लंबे जाम लगने आरंभ हो गए। मार्ग में आज पहली बार जगह-जगह यातायात पुलिस को जाम को खुलवाने की कोशिश करते देखा। एक बात खुल कर सामने आई कि इन पर्वतीय मार्गों पर यदि आप यातायात संबंधी अनुशासन का पालन नहीं करते हैं तो न केवल दूसरों के लिए वरन अपने लिए भी मुसीबत का कारण बन जाते हैं। यदि दो लेन की सड़क पर एक के पीछे एक वाहन चले तो जाम लगे ही नहीं। लेकिन अकसर देखा कि लोग एक वाहन की जगह में तीन-तीन वाहनों को फंसा रहे थे, जिससे पीछे आने वाले वाहनों की कतारें लग रही थीं।



ट्रैफिक जाम गांदरबल
तो आज की यात्रा में पहला बड़ा नगर आया गांदरबल। समुद्र-तल से 5312 फुट की ऊँचाई पर स्थित गांदरबल शहर में इस तथ्य के बावजूद कि यह पूर्व मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र था, शहरी विकास नाम मात्र का ही नजर आया। इसके बाद जाम से जूझते हुए पहुँचे कंगन, यह गांदरबल जिले का एक ब्लॉक है। जिले की तीन पन बिजली परियोजनाओँ में से एक कंगन में स्थित है। झेलम की प्रमुख सहायक नदी सिंध गांदरबल में प्रवाहित होती है और जिले में कृषि सिंचाई तथा पनबिजली परियोजनाओं का प्रमुख स्रोत है।

गांदरबल से एक रास्ता तुलमुला गाँव की ओर जाता है, जहाँ एक पवित्र चश्मे पर खीर भवानी माता का मंदिर स्थित है। खीर भवानी देवी की पूजा लगभग सभी कश्मीरी हिन्दू और बहुत से ग़ैर-कश्मीरी हिन्दू भी, करते हैं। पारंपरिक रूप से वसंत ऋतु में इन्हें खीर चढ़ाई जाती थी इसलिए इनका नाम 'खीर भवानी' पड़ा। इन्हें महारज्ञा देवी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि किसी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी के सदृश, आपदा के आने से पहले ही मंदिर के कुण्ड का पानी काला पड़ जाता है।

खीर भवानी मंदिर, तुलमुला


कंगन में भारी जाम लगा था, यातायात पुलिस की लंबी जद्दोजहद के बाद जाम खुला और हम आगे बढ़े। अगला कस्बा मार्ग में आया गुंड।  मार्ग के साथ-साथ बहती सिंध नदी और उसके तीव्र प्रवाह में राफ्टिंग जैसी रोमांचक जल-क्रीड़ाएं खासकर युवकों को आकर्षित करती है। अनेक स्थानों पर सिंध नदी पर पिकनिक स्थल और मनोरंजन पार्क बने देखे।
जाम के कारण 85 किमी की दूरी 4 घंटे में तय कर के दोपहर बाद 2 बजे हम सोनमर्ग पहुँचे। सोनमर्ग का शाब्दिक अर्थ होता है ‘सुनहरी घास का मैदान’। हिमालय की 16,000 फुट से अधिक ऊँची सिरबल, कोल्होई, अमरनाथ और माचोई पर्वत चोटियों से घिरा सोनमर्ग सिंध नदी में राफ्टिंग, स्काई डाइविंग जैसे रोमांचक खेलों के लिए प्रसिद्ध है। सोनमर्ग के निकट हिमालय के तीन विशाल ग्लेशियर कोल्होई, माचोई और थाजीवास स्थित हैं। दूर-दूर तक फैले घास के मैदान और कल-कल बहती सिंध नदी, मन को शांति प्रदान करते हैं।

सोनमर्ग
इस स्थान का नाम इस तथ्य के आधार पर पड़ा कि वसंत ऋतु में यह सुंदर फूलों से ढँक जाता है जिससे यह सुनहरा और बहुत ही सुन्दर दिखाई देता है। सोनमर्ग के इन पहाड़ों की ऊँची चोटियों पर जब सूरज की किरणें पड़ती हैं तो वे भी सुनहरी दिखती हैं। सोनमर्ग उन यात्रियों के लिए उचित स्थान है जो साहसिक गतिविधियों जैसे ट्रेकिंग या पैदल लंबी यात्रा में रूचि रखते हैं। सभी महत्वपूर्ण ट्रेकिंग के रास्ते सोनमर्ग से ही प्रारंभ होते हैं जो इसे ट्रेकिंग के लिए और भी लोकप्रिय स्थान बनाते हैं। सोनमर्ग अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है जिसमें झीलें, दर्रे और पर्वत शामिल हैं। सोनमर्ग अमरनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए आधार शिविर की तरह है।  सोनमर्ग के निकट बालटाल से ही अमरनाथ यात्रा आरंभ होती है।


सोनमर्ग
एक अच्छे से होटल में भोजन करने के बाद जोजीला दर्रे, बालटाल, थाजीवास ग्लेशियर तथा अन्य पर्यटक स्थलों पर जाने के लिए यहाँ की स्थानीय टैक्सी ली। श्रीनगर की टैक्सियों को पर्यटन के लिए पर्यटकों को सोनमर्ग क्षेत्र में घुमाने की अनुमति नहीं है।
टैक्सी ड्राइवर ने हमारे लिए बर्फ पर चलने के लिए प्लास्टिक के लंबे बूट और एक-एक ओवरकोट साथ में ले लिए थे। मार्ग में टैक्सी ड्राइवर ने जल-क्रीड़ा पार्क दिखाया। एक फिश पोंड भी रास्ते में आया जहाँ ग्लेसियर से झरना आता है।


फिश पोंड
 आगे एक स्थान पर सड़क किनारे पहाड़ पर टिकी बर्फ की एक चट्टान को दिखा कर बोला कि यह गलेशियर है, आप चाहो तो इस पर स्लेज का उपयोग कर सकते हैं। मुझे उससे कहना पड़ा कि मियाँजी, 60 साल की उम्र है मेरी, बर्फ की इस छोटी सी चट्टान को ग्लेशियर साबित करने की कोशिश मत करो। पैकेज में थाजीवास गलेशियर साफ-साफ लिखा है। काफी बहस के बाद, उसने जोजीला दर्रे की ओर बढ़ना शुरू किया।

नाला सिंध

मार्ग में बालटाल के नए आधार शिविर का स्थल देखा। विशाल मैदान जहाँ 15 दिन बाद अमरनाथ यात्रियों के लिए चारों तरफ बड़े-बड़े तंबू लगेंगे, लंगर चलेंगे और अनगिनत स्टॉल लगेंगी। कुछ और आगे बढ़ने पर हम पहुँच गए जोजीला दर्रे पर, जिसे पार करते ही आप लद्दाख की सीमा में प्रवेश करते हैं। राषट्रीय राजमार्ग 1-डी श्रीनगर-लेह पर समुद्र-तल से 13,000 फुट की ऊँचाई पर स्थित इस स्थान पर कश्मीर की सीमा समाप्त होती है। मोड़ पर घूमते ही सड़क और ऊपर की तरफ चली जाती है। जितनी देर हम वहाँ रुके, ऊपर लेह की और जाने वाले ट्रकों की कतारें लगी ही रहीं। यहाँ से लेह की दूरी 348 किमी है। ये ट्रक दिन-दिन में जोजीला दर्रे को पार कर लेते हैं और फिर रात भर लद्दाख की चुंबकीय पहाड़ी को पार करने की जद्दोजहद में लग जाते हैं। इस चुंबकीय पहाड़ी को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। टैक्सी ड्राइवर ने कहा, ‘साहब इस पहाड़ी में सोना है। चीन ने इसका पता लगा लिया था। शाम के वक्त यह पहाड़ सोने की तरह चमकता है, इसी कारण पहाड़ी के इस तरफ वाले रमणीय स्थान का नाम सोनमर्ग पड़ा है। चीन और पाकिस्तान किसी भी कीमत पर लद्दाख की इस चुंबकीय पहाड़ी (सोने की पहाड़ी) को हासिल करना चाहते हैं।’

जोजी ला दर्रा
 जोजीला से उन हिमाच्छादित पहाड़ों का नयनाभिराम दृश्य दिखाई देता है जिनके पीछे अमरनाथ गुफा स्थित है। नीचे अमरनाथ यात्रा का मार्ग भी साफ दिखाई देता है। 

बालटाल से अमरनाथ यात्रा मार्ग
         
कुछ समय तक वहाँ के दृश्यों को कैमरे में कैद करने के बाद हम वापस सोनमर्ग की और रवाना हुए। थाजीवास ग्लेशियर सोनमर्ग के दूसरी तरफ है। इसलिए सोनमर्ग लौट कर हमने थाजीवास का रुख किया। आसमान में काले बादल छाए थे, बिजली चमक रही थी। मन आशंकित हो उठा था कि यदि बारिश हो गई तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।

तेज वर्षा और खराब मौसम में थाजीवाल ग्लेशियर

ग्लेशियर से लगभग 2 किलोमीटर पहले टैक्सियों को रोक दिया जाता है। वहाँ से आगे या तो पैदल या घोड़े पर ही जाया जा सकता है। हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। हमने अपने लंबे बूट और ओवरकोट पहने। मैंने पाया कि मेरे ओवरकोट में सिर को ढकने वाला टोप गायब था। टैक्सी ड्राइवर ने एक तौलिया थमाते हुए मुझ से सिर ढक लेने को कहा। हमने ग्लेशियर पर जाने के लिए पहाड़ पर चलना शुरू किया। मुश्किल से आधा किलोमीटर गए होंगे कि बारिश बहुत तेज हो गई। मेरे सिर पर मात्र एक तौलिया था, जो पूरी तरह से पानी में तर हो चुका था और मुझे अचानक पैरों में कंपकंपी और शरीर में बुखार की अनुभूति होने लगी थी। आगे कदम बढ़ाना बहुत कठिन लगने लगा था। विवश हो कर लोटने का निर्णय करना पड़ा। तेज बारिश में ही वापस टैक्सी स्टैंड पर लौटे और एक स्टॉल पर चाय पीकर वापस सोनमर्ग की तरफ चल दिए। मन में एक टीस रह गई कि ग्लेशियर के इतना करीब आ कर भी हम तेज बारिश और तबीयत खराब हो जाने के कारण नहीं जा सके।

साफ मौसम में ऐसा दिखता थाजीवास ग्लेशियर

सोनमर्ग लौट कर हमने अपनी श्रीनगर वाली टैक्सी के ड्राइवर को तलाश किया, जो छींकता हुआ मिला यानी उसे भी सर्दी लग चुकी थी। श्रीनगर में होटल तक की वापसी यात्रा के दौरान मेरा ज्वर बढ़ गया था और पूरा सफर मैंने अर्द्ध-निद्रा में ही काटा था। फर्स्ट-एड बॉक्स होटल में था जिसमें लगभग सभी तरह की दवाएँ मौजूदी थीं। होटल पहुँच कर दवा ली और विश्राम किया। रात 11 बजे बाद शरीर का तापमान नीचे उतरने के बाद दिन में लिए गए कुछ चित्र फेसबुक पर मित्रों के साथ साझा किए।

ऐसी यात्राओं में स्वयं को स्वस्थ बनाए रखना एक चुनौती होता है। आप लाख सतर्क रहें, मौसम की प्रतिकूलता हो या बाहर होटलों, रेस्तराओं में खाने की मजबूरी, कोई न कोई कारण ऐसा बन जाता है जो आपको बीमार कर के आपके भ्रमण अभियान को ग्रहण लगा सकता है।

15 जून 2015
गुलमर्ग की यात्रा

कल शाम की तीव्र ज्वर की अवस्था को देखते हुए आज के लिए निर्धारित गुलमर्ग की यात्रा का कार्यक्रम लगभग रद्द हो चुका था। फर्स्ट-एड बॉक्स में सहेज कर रखी गई दवाओं का लाभ मिला और मध्य-रात्रि तक ज्वर उतर चुका था। सुबह उठे तो एक नई मुसीबत सामने आ खड़ी हुई। हम दोनों को ही दस्तों का सामना करना पड़ा। मैंने हमारे ड्राइवर को फोन कर दिया कि हम आज कहीं बाहर जाने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन फिर से हमारा फर्स्ट-एड बॉक्स काम आया और 10 बजते-बजते हम सामान्य अनुभव करने लगे थे। मैंने ड्राइवर को फिर से फोन किया कि सबकुछ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही चलेगा।

लगभग 11 बजे हम होटल से गुलमर्ग के लिए निकले। श्रीनगर के लाल चौक से गुजरते हुए जल्दी ही हमने श्रीनगर-बारामूला मार्ग पकड़ लिया। आज पिछले दो दिनों की तुलना में बहुत कम, दो या ती न जगह ही हल्के जाम का सामना करना पड़ा। मार्ग में एक ही कस्बा मागम पड़ा। पर्यटन की दृष्टि से यहाँ उल्लेखनीय कुछ नहीं था।

पिछले 5 दिन में मैंने यह शिद्दत से महसूस किया है कि कश्मीर में बैंकिंग सेवाएँ अधिक प्रचलित नहीं हैं। मार्ग में कोई एटीएम नजर नहीं आ रहा था। बड़ी मुश्किल से एचडीएफसी का एक एटीएम नजर आया। मैंने गाड़ी रुकवाई और पैसे निकालने पहुँचा तो पाया कि एटीएम काम ही नहीं कर रहा है। मन मार कर वापस गाड़ी में बैठा और अपने मोबाइल में गूगल मानचित्र की मदद से पता लगाया कि जम्मू और कश्मीर बैंक का एटीम कुंजर गाँव में आएगा। तदनुसार, कुंजर गाँव आने पर एटीएम से पैसे निकाल सका।

गुलमर्ग की सर्पिलाकार सड़क


इसके बाद, तनमर्ग से गुलमर्ग के लिए सर्पिलाकार चढ़ाई आरंभ हो गई। मार्ग के दोनों तरफ पाइन के ऊँचे वृक्षों की कतारें अत्यंत आकर्षक दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। इस मार्ग की कई तस्वीरें लीं, फिर भी हर मोड़ के बाद एक और तस्वीर लेने को मन करता था। बीच में एक व्यू-पॉइंट भी मिला जहाँ से पूरी पाइन वैली और ऊपर हिमाच्छादित पर्वत चोटियों का मनोहारी दृश्य एक साथ देखा जा सकता था।

वयूपॉइंट से दृश्य


आखिर, हम गुलमर्ग पहुँच गए। पहले गुलमर्ग का नाम माता पार्वती के नाम पर था गौरीमार्ग। 16वीं शताब्दी में सुल्तान युसूफ़ शाह ने इसका नाम बदलकर गुलमर्ग कर दिया। मुगल सम्राट जहांगीर भी यहां शिकार करने आया करता था। जहांगीर ने 21 अलग-अलग प्रजातियों के फूल यहाँ से इकट्ठे करके अपने बगीचे के लिए मंगाए गए थे।  उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज अफसर भारत की भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए गुलमर्ग की शरण लेते थे। इस जगह को शीतकालीन खेलों के लिए विकसित करने के प्रयास निरंतर होते रहे हैं। 1968 में यहां स्कीइंग और माउंटेनियरिंग इंस्टी्यूट की स्थापना की गई थी। 1998, 2004 और 2008 में यहां राष्ट्रीय शीतकालीन खेल हो चुके हैं।

गुलमर्ग

गुलमर्ग समुद्र-तल से 8957 फुट की ऊँचाई पर हिमालय की पीर पंजाल पर्वत शृंखला के बीच एक कटोरे की शक्ल में स्थित है। यहाँ के घास के मैदान पाइन और फर के पेड़ों से घिरे हैं। गुलमर्ग में 14,000 फुट की ऊँचाई पर स्थित अफरवात चोटी से स्कीइंग तथा अन्य बर्फ के खेलों का आयोजन किया जाता है।

18 होल वाला दुनिया का सबसे बड़ा गोल्फ कोर्स

सामने था 8690 फुट की ऊँचाई पर स्थित दुनिया का सबसे बड़ा, 18 होल वाला गोल्फ कोर्स। केबल कार तक जाने के लिए हमारी गाड़ी को अनुमति नहीं दी गई। हमें कितने ही घोड़ेवालों ने घेर लिया था। कोई सबसे ऊपर बर्फ तक ले जाने की बात कर रहा था तो कोई केबल-कार तक। कोई चार हजार माँग रहा था तो कोई डेढ़ हजार। जैसे-तैसे एक घोड़ेवाले से पाँच सौ रुपए प्रति घोड़े में बात बनी और हम केबल-कार तक पहुँच गए।

गंडोला की सवारी

टिकट खिड़की पर पहुँचे तो पता चला कि अफरवात चोटी पर मौसम खराब होने के कारण केबल कार स्तर-2 की बुकिंग बंद कर दी गई है। अतः हमें स्तर-1 के लिए ही केबल-कार के टिकट मिल सके। हम केबल-कार में सवार हो कर पाइन के वृक्षों से लदी घाटी के ऊपर से 18 टॉवरों पर से हो कर 13,780 फुट की ऊँचाई पर स्थित कोंगडोरी पर्वत पर पहुँच गए।

18 खंभों पर गंडोला

वहाँ पहुँच कर पीर पंजाल पर्वत शृंखला की तमाम चोटियों को हिमाच्छादित पाया। बड़ा ही नयनाभिराम दृश्य था। जैसे ही केबल-कार स्टेशन से बाहर निकले, घोड़े वालों ने हमें घेर लिया। हमें बताया गया कि भले ही स्तर-2 पर हम नहीं जा सकेंगे, फिर भी बर्फ का आनंद ले सकते हैं। निकट ही पीर पंजाल की अफरवात चोटी से कोंगडोरी पर्वत तक आई हुई बर्फ की एक मोटी चादर मौजूद है। हमने 500-500 रुपए में दो घोड़े लिए और बर्फ की और चल पड़े।

घोड़े की सवारी
              
 वहाँ पहुँचते ही स्लेज और आइस-मोटरबाइक वाले हमें घेर कर खड़े हो गए। आइस-मोटरबाइक और स्लेज दोनों पर एक व्यक्ति सवार हो सकता था तथा दोनों की दरों में बहुत ज्यादा अंतर था। आखिरकार हमने स्लेज से ऊपर जाने का निर्णय किया।
स्लेज की सवारी

स्लेज पर बैठना भी आसान नहीं होता। कई बार बैलेंस बिगड़ जाता है और आप गिर सकते हैं। स्लेज़ की सवारी करना अमानवीय लगता है। उम्रदराज लोग आपकी स्लेज खींच रहे होते हैं। लेकिन यही तो उनकी रोजी-रोटी है। इसके सिवाय यहां उनके लिए कोई काम भी नहीं है। स्लेज को ऊपर ले जाने वाले जब हाँफ जाते थे तो बीच-बीच में रुक जाते थे। ऊपर एक झरने तक वे हमें ले गए। वहाँ का दृश्य बहुत ही लुभावना था। 

ग्लेशियर पर 

कुछ तस्वीरें लेने के बाद हम वापसी के लिए फिर से स्लेज पर बैठे। इस बार स्लेज खींचने वाले खुद स्लेज पर आगे बैठे और हमें पीछे बिठा कर हमसे उनको कस कर पकड़ लेने को कहा। सके बाद जो स्लेज चली तो नीचे आरंभ बिंदु पर आकर ही रुकी। बर्फ का असली आनंद झरने से नीचे तक आने के दौरान ही मिला। 
अब तक कई पर्यटक-केंद्रों पर जा चुके होने के कारण हम जान चुके थे कि किसी भी सेवा की मूल दर कुछ भी हो, पर्यटक से बख्शीश हर जगह माँगी जाती है। इसलिए शानदार स्लेज सवारी कराने के लिए दोनों स्लेज-चालकों को तय दर के अलावा बख्शीश भी दी और फिर से घोड़ों पर सवार हो कर केबल-कार स्टेशन पर आ गए। भूतल पर वॉश-रूम का प्रयोग किया तो वहाँ भी दो बंदे सामने आ गए और बोले, हमारी बख्शीश? मतलब यह कि हर जगह, हर काम के बाद बख्शीश माँगना यहाँ की प्रथा बन चुकी है।

घोड़ों पर वापसी

केबल-कार पर सवार हो कर हम चल दिए आधार केबल-कार स्टेशन की ओर। नीचे केबल-कार स्टेशन के बाहर ही दोनों घोड़े वाले इंतजार कर रहे थे। उन घोड़ों पर सवार होकर हम परिसर से बाहर आए और अपनी गाड़ी में बैठ कर वापस श्रीनगर की और रवाना हो गए।
हमारे ड्राइवर रफीक ने पहले से कह रखा था कि गुलमर्ग से लौटते समय चेरी और स्ट्रॉबेरी लेंगे। मार्ग में जगह-जगह लोग चेरी के डिब्बे लेकर बैठे थे। दो डिब्बे चेरी के 90 रुपए की दर से ले लिए, किंतु पूरी रास्ते में स्ट्रॉबेरी कहीं नजर नहीं आई।
कल की अस्वस्थता की बात दिमाग से बिलकुल निकल चुकी थी, क्योंकि आज हमने कोंगडोरी पर्वत पर बर्फ का पूरा आनंद लिया था। सोनमर्ग में थाजीवास ग्लेशियर और गुलमर्ग में अफरवात की चोटी पर न जा पाने का मलाल दिल से जाता रहा। आज अन्य दिनों की अपेक्षा, थोड़ा जल्दी, साढ़े सात बजे तक हम होटल पहुँच गए थे। थोड़ा विश्राम करने के बाद होटल से फिर बाहर निकले और टहलते हुए एक शुद्ध शाकाहारी जैन भोजनालय पर पहुँच कर भोजन किया। कल श्रीनगर के स्थानीय उद्यानों, ऐतिहासिक स्थलों और शंकराचार्य मंदिर को देखने का कार्यक्रम है।    

16 जून 2015   श्रीनगर की यात्रा

आज कश्मीर भ्रमण का अंतिम दिन है। सुबह लगभग 9 बजे अपने होटल से चेक आउट करके हम श्रीनगर के दर्शनीय स्थलों को देखने निकल पड़े। सबसे पहले पहुँचे शंकराचार्य मंदिर। यह डल झील के किनारे जबरवन पर्वत की शंकराचार्य पहाडी या सुलेमान पहाड़ी पर जमीन से 1000 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। 

शंकराचार्य मंदिर, श्रीनगर

वास्तव में यह शिव मंदिर है। कल्हण के अनुसार इस पहाड़ी का नाम गोपाद्रि था और राजा गोपादित्य ने ईसा से 371 वर्ष पूर्व इस मंदिर को ज्येष्ठरुद्र (शिव) के लिए स्थापित किया था। बाद में समय-समय पर इसकी मरम्मत और देखरेख में राजा गोपादित्य, राजा ललितादित्य, जेन-उल-आबदीन और सिख राज के गवर्नर शेख गुलाम मोहिउद्दीन का योगदान रहा है। सुल्तान वंश के शासनकाल में इस पहाड़ी का नाम बदल कर तख्ते-सुल्तान रख दिया गया था। कश्मीर में सिख राज्य के दौरान ही इस पहाड़ी को शंकराचार्य पहाड़ी के नाम से जाना जाने लगा था।
इसका वर्तमान स्वरूप 9वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया था। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर में साधना की थी, इसलिए इसका नाम शंकराचार्य मंदिर पड़ गया, किंतु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है। यहाँ आदि शंकराचार्य की मूर्ति द्वारका पीठ के शंकराचार्य ने 1961 में स्थापित की थी।

शंकराचार्य मंदिर

कार से उतर कर मंदिर तक जाने के लिए पूरी 243 सीढ़ियाँ हैं आगे मंदिर के हॉल में जाने के लिए 9 सीढ़ियाँ और हैं, जिन्हें मिला कर कुल 252 सीढ़ियाँ चढ़कर हम शिवलिंग के दर्शन कर पाए।
मंदिर से श्रीनगर और खासकर डल ढील का दृश्य अद्भुत दिखाई देता है।

                 
डल झील के किनारे उद्यान मार्ग
 
वापस आकर हमने डल झील के किनारे स्थापित उद्यानों का रुख किया। सबसे पहले पहुँचे चश्मे-शाही। इस चश्मे या झरने की सबसे पहले खोज साहिब कुल की साध्वी रूपा भवानी ने की थी, उनके नाम पर इसका नाम चश्मे-साहिबी पड़ा था। कालांतर में इसका अपभ्रंश हो कर चश्मे-शाही हो गया। इस झरने के चारों तरफ एक सुंदर उद्यान है, जो श्रीनगर के मुगल उद्यानों में सबसे छोटा है। इस उद्यान का निर्माण बादशाह शाह जहां द्वारा अपने सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह के लिए करवाया गया था।

चश्मे शाही

चश्मे शाही जबरवन की पहाड़ियों में स्थित है। इसकी  तीन-मंजिली संरचना में सबसे ऊपर ईरानी स्थापत्य कला में निर्मित एक कक्ष में जल-स्रोत (गोमुख) है जिससे औषधीय गुणों वाला निर्मल जल निरंतर बहता रहता है। इस मंजिल पर पानी की एक चादर के रूप में प्रवाहित होकर यह जल नीचे दूसरी मंजिल पर गिर कर एक तालाब का आकार लेता है जिसके बीचों बीच एक बड़ा फव्वारा है और फिर वहाँ से बहता हुआ सबसे निचली, पहली मंजिल पर आता है जहाँ पाँच फव्वारों वाला एक चौकोर तालाब है। इस चश्मे के दोनों तरफ, तीनों मंजिलों पर, विभिन्न प्रजातियों के रंग-बिरंगे फूल खिले थे। सभी फूल इतने आकर्षक थे कि लगभग हर क्यारी की एक-एक तस्वीर लिए बिना नहीं रह सका।
चश्मे शाही
                         

चश्मे-शाही के बाद हम पहुँचे परी महल। परी महल के रास्ते में ही राज-भवन पड़ता है, इसलिए यहाँ अतिरिक्त सुरक्षा जाँच हुई। परी महल श्रीनगर शहर के ऊपर, डल झील के दक्षिण-पश्चिम में जबरवन की एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। 

परी महल

इस उद्यान का निर्माण बादशाह शाहजहाँ के शासन के दौरान, 16वीं शताब्दी के मध्य में दारा शिकोह द्वारा एक बौद्ध मोनास्ट्री के भग्नावशेषों पर किया गया था। दारा शिकोह यहाँ ज्योतिष सीखने आता था। यहीं पर उसके भाई औरंगजेब द्वारा उसकी हत्या कर दी गई थी। इस उद्यान का उपयोग बाद में ज्योतिष एवं खगोल शास्त्र के शिक्षण तथा वेधशाला के रूप में किया जाता रहा है।

परी महल

यह एक सात-मंजिला उद्यान है। इस उद्यान की हर मंजिल से डल झील और श्रीनगर का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। उद्यान में जून के महीने में भी विभिन्न प्रजातियों के फूलों की छटा खिली हुई थी। यहाँ एक अच्छा-खासा फोटो-सेशन हो गया।
पठान के वेश में


रानी महल से नीचे आए तो चश्मे-शाही के पास से गुजरते हुए हम जा पहुँचे कश्मीर के दूसरे सबसे बड़े और सबसे बड़े सीढ़ीदार उद्यान निशात बाग़ में। 
निशात बाग

यहाँ मैं याद दिलाता चलूँ कि इन सभी मुगल गार्डनों में प्रवेश टिकट खरीद कर ही किया जा सकता है। निशात बाग़ डल झील की पूर्वी ओर स्थित है जिसका निर्माण 1633 में मुमताज महल के पिता और नूरजहाँ के भाई हसन आसफ खान द्वारा किया गया था। बादशाह शाहजहां चूँकि हसन आसफ खान का दामाद था तो वह इस बाग़ को बतौर तोहफा अपने ससुर से हासिल करना चाहता था। जब ससुर ने ऐसा नहीं किया तो कहा जाता है कि शाहजहाँ ने इस बाग़ के लिए जलापूर्ति काट दी थी।
अपने सुंदर फव्‍वारों, बड़े-बड़े लॉन और सुंदर फूलों के कारण यह बाग अत्यधिक प्रसिद्ध है। फूलों की आकर्षक छटा के बीच फोटो सेशन करके हम अगले उद्यान की और बढ़ गए।
शालीमार गर्डन

अगला उद्यान था कश्मीर का सबसे बड़ा उद्यान शालीमार गार्डन। शालीमार शब्‍द का अर्थ होता है - प्रेम का वास। इस गार्डन को शालीमार बाग, फैज बख्‍श, गार्डन ऑफ चार मीनार और फराह बख्‍श के नाम से भी जाना जाता है। इस बाग को मुगल बादशाह जहांगीर ने अपनी बेगम नूर जहां के लिए 1619 ई. में बनवाया था।  बाग को विभिन्‍न प्रयोजनों के लिए तीन सीढ़ीदार खंडों में विभाजित किया गया है। बाहरी बगीचा दीवान-ए-आम, बाग़ का बीच वाला हिस्‍सा दीवान-ए-खास या सम्राट का बाग और सबसे ऊपर वाले बाग के हिस्‍से को शाही महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया था।

श्रीनगर से 15 किमी दूर स्थित यह उद्यान समस्त मुगल उद्यानों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसका सबूत भी वहाँ मौजूद भीड़ के रूप में मिला। चूँकि उद्यान बहुत बड़ा है, इसलिए भीड़ किसी तरह से भी सैलानियों के भ्रमण में बाधक नहीं बन रही थी। हमें बताया गया कि रात को प्रकाश-व्यवस्था के प्रभाव में इस बाग़ की छटा निराली ही होती है। खैर, हम तो दिन में भी जो देख रहे थे, हमारा मन मोहने के लिए वही काफी था। इस बाग़ में हमने एक घंटे से ज्यादा बिताया।



अब तक शाम होने लगी थी, इसलिए अन्य उद्यानों के भ्रमण को टाल कर हमने डल झील में हमारे लिए बुक किए गए हाउसबोट ‘रोज मेरी’ का रुख किया। हमारे ड्राइवर ने रोजमेरी हाउसबोट के मालिक को फोन किया तो उसने एक शिकारा हमें लेने के लिए घाट पर भेज दिया। शिकारे पर सवार हो कर हम हाउस बोट में पहुँचे।
हाउसबोट रोज मेरी की ओर

हाउसबोट में अल्पाहार कर कुछ देर हमने विश्राम किया। हाउस बोट में हमें मिले कमरे की सज्जा देख कर अफसोस होने लगा कि काश हम श्रीनगर प्रवास के सभी दिन इस हाउसबोट में गुजारते। होटल के कमरे की तुलना में यहाँ की हर चीज बेहतर तो थी ही, काष्ठ-कला, पच्चीकारी, सभी में कश्मीर की सांस्कृतिक छाप दिखाई दे रही थी। पूरे हाउस बोट में कश्मीरी कालीन बिछे हुए थे। सबसे बड़ी बात, मुझे अपने लैप-टॉप के लिए बिजली की सप्लाई मिल गई।
स्वागत कक्ष हाउसबोट रोजमेरी

लगभग 6 बजे हम शिकारे की सवारी के लिए निकले, जोकि हमारे पैकेज में शामिल था। हमारा शिकारा थोड़ी ही दूर निकला होगा कि पता नहीं कहाँ-कहाँ से माल-बेचने वालों की नावें आकर हमारे शिकारे के बगल में लगने लगी। बड़ी मुश्किल से हर माल-विक्रेता नाव से पीछा छुड़ाना पड़ा। एक से हमने चिप्स और पानी की बोतल ली तो दोनों वस्तुओं पर 5-5 रुपए अतिरिक्त लिए। खैर, यहाँ डल झील में ये लोग पूरे दिन अपनी नावों में विभिन्न माल लेकर सैलानियों को बेचने की कोशिश करते रहते हैं।
 
डल झील में शिकारे
                          
शिकारे से हमने जी भर कर डल झील की सैर की और जगह-जगह सुंदर दृश्यों को कैमरे में कैद भी किया। शायद शिकारे वालों की सोची समझी योजना के अंतर्गत हमें झील में ही स्थित मीना बाजार ले जाया गया और कहा गया कि कुछ खरीदना चाहें तो खरीद सकते हैं। पिछले पाँच दिनों में हमारी शॉपिंग आवश्यकता से अधिक हो चुकी थी। इसलिए हमने कुछ भी न खरीदना ही उचित समझा और शिकारे वाले को मुख्य सड़क वाले घाट पर ले जाने के लिए कहा।
                               
हाउस बोटों का एक दृशय
डल झील से लगी इस सड़क पर अधिकतर होटल या रेस्तरां हैं। करीब 30 मिनट तक रेस्तराओं का जायजा लेने के बाद हमने एक जैन शाकाहारी ढाबा चुन ही लिया और वहाँ भोजन करने के बाद अपने हाउसबोट पर जाने के लिए घाट पर आ गए। इस समय डल झील का दृश्य देखते ही बनता था। जहाँ तक नजर जाती थी रोशनी से जगमगाते शिकारों, हाउस बोटों और जल में उनके प्रतिबिंबों पर आँखें चिपकी रह जाती थी। ऐसे नयनाभिराम दृश्य के बीच शिकारे पर सवार होकर हम अपनी हाउसबोट पर वापस आ गए।

रात को डल झील में हाउस बोटों का दृश्य
कल सुबह 10:45 की उड़ान है, इसलिए सुबह जल्दी ही यहाँ से निकलना होगा। टीवी चल रहा है, लेकिन मन उलझा है कश्मीर की वादियों के सौंदर्य में। इन छह दिनों में कितना कुछ पाया है, एक निर्वचनीय सुख का अनुभव किया है। क्या कभी ये यादें विस्मृत की जा सकेंगी!
अंत में, इस वृत्तांत को पढ़ कर कश्मीर यात्रा के लिए उद्यत होने वाले मित्रों के लिए सलाह है कि यदि 2 दिन का भी कार्यक्रम हो तो एक दिन सिंथन टॉप के लिए अवश्य रखें। यहाँ के घोड़े वालों को काफी बदनाम किया जाता है। मेरी सलाह है कि दो-चार घोड़े वालों से मोल-भाव करें, फिर आप पाएँगे कि आपको मुनासिब दाम पर घोड़े मिल जाएँगे। टैक्सी वाले अधिक पैसा माँगते हैं जबकि उसी दूरी के लिए घोड़े बहुत कम कीमत पर मिल जाते हैं। हाँ, थोड़ा शोध आप भी करके जाएँ कि कौन-कौन से स्थान आपको देखने हैं।
ट्यूलिप गार्डन

जीवन में एक बार कश्मीर घूमना तो बनता है, दोस्त।  

मेरी कश्मीर यात्रा – 7 
17 जून 2015 (समापन)
आज श्रीनगर के साथ-साथ कश्मीर से विदा लेनी थी। उड़ान का समय 10:45 का था तो सुबह 7:45 बजे ही हाउस बोट छोड दिया। हाउसबोट की भव्य साज-सज्जा की स्मृति साथ लिए शिकारे पर सवार हुए और डल झील के किनारे वाली सड़क पर आ गए। सड़क किनारे लगी रेलिंग से दूर-दूर तक हाउसबोटों की कतारों, डल झील में इतने सवेरे ही चल रहे शिकारों को आखिरी बार आँख भर कर देखा। निश्चय ही डल झील श्रीनगर की सुंदरता में चार चाँद लगाती है।
डल झील

एक रेस्तरां में नाश्ता करने के बाद हम एयरपोर्ट की तरफ चल दिए। जैसे-जैसे टैक्सी आगे बढ़ती जा रही थी, हमारे दिमागों में कश्मीर में बिताए गए एक सप्ताह के अनुभव, कश्मीर की वादियों का सौंदर्य, हिमाच्छादित पहाड़ियों की धवल पंक्तियाँ, पहाड़ी घोड़ों की पीठ पर पहाड़ों के दुर्गम मार्गों से होते हुए सवारी, बर्फ पर स्लेज से फिसलना, सब कुछ एक फिल्म की तरह चलता जा रहा था। अभी तक हम कश्मीर के सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाए थे।
विमान से हिमाच्छादित पहाड़ों का दृश्य

एयरपोर्ट के बाहर ही कड़ी सुरक्षा चेकिंग का सामना करना पड़ा। हमारे सारे सामान को गाड़ी से निकलवा कर स्कैन किया गया। सुरक्षा जाँच के बाद सामान वापस टैक्सी में रखा गया और हम एयरपोर्ट के मुख्य भवन की और चल दिए। एयरपोर्ट पर भी कम से कम तीन बार सुरक्षा जाँच हुई। श्रीनगर एयरपोर्ट के महत्व को देखते हुए इस प्रकार की जाँच को उचित ही माना जाएगा।
ठीक 11 बजे हमारे विमान ने उड़ान भरी और श्रीनगर के आकाश में पहुँच कर जब हमने नीचे देखा तो चारों तरफ बर्फ से सजी पीर पंजाल पर्वत शृंखला की चोटियाँ अद्भुत छटा प्रस्तुत कर रही थीं। विमान की खिड़की से इन दृश्यों को कैमरे में संजोया। धीरे-धीरे कश्मीर की वादियाँ पीछे छूटती गई और विमान से भी धरती दिखनी बंद हो गई क्योंकि बड़े जेट विमान अधिकतर 31,000 फुट से अधिक ऊँचाई पर ही उड़ते हैं।
विमान से वादी का दृश्य

दोपहर लगभग एक बजे हम दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उतरे। यहाँ से जयपुर के लिए हमारी उड़ान 4:20 पर थी, उसके लिए लंबी कतार में खड़े हो कर बोर्डिंग पास बनवाने, सुरक्षा चेकिंग आदि में तीन बज गए। अल्पाहार आदि के बाद जब घोषणा स्क्रीन पर देखा तो पता चला कि उड़ान का समय 5 बजे हो गया है। खैर, पाँच बजे दिल्ली से उड़ान भर कर लगभग पौने छह बजे हम जयपुर पहुँच गए, जहाँ पुत्र, पुत्र-वधु, पुत्री और दोहिते अगवानी के लिए मौजूद थे।
जयपुर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट

इस प्रकार एक सप्ताह के कश्मीर भ्रमण का समापन हुआ। यह यात्रा वृत्तांत, चूँकि किसी साहित्यिक लेखक द्वारा नहीं लिखा गया है, अतः इसमें तकनीकी कमियाँ हो सकती हैं। मैंने जैसा कश्मीर को देखा और वहाँ जो-जो अनुभव किया उसे पूरी सच्चाई से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
एक टिप्पणी मैं अपनी ओर से करना चाहूँगा कि कश्मीर में शांति की अत्यधिक आवश्यकता है। पिछली सरकारों ने कश्मीर के विकास के लिए लगभग कोई काम नहीं किया था। वहाँ शहरीकरण की गति शेष देश की तुलना में बहुत धीमी रही है। आम कश्मीरी की हालत अच्छी नहीं है। कश्मीरियों के लिए कुटीर उद्योग और पर्यटन ही एक मात्र आय के स्रोत हैं। साल में पाँच-छह महीने बर्फ के कारण ये दोनों ही स्रोत प्रभावित होते हैं। ऐसी स्थिति में यदि कश्मीर में शांति कायम रहे और सरकार विकास कार्यों तथा लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उपयुक्त कार्यवाही करे तो स्वर्ग समान सुंदर यह वादी वास्तव में स्वर्ग बन जाए। इति।     

   
         

                गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त

                                               हमीं अस्त हमीं अस्त।