बुधवार, 7 अगस्त 2013

ईमानदारी को मिलती है सजा

जम्मू और काश्मीर की सबसे वरिष्ठ आईएएस सोनाली कुमार को दिल्ली में प्रिंसीपल रेजिडेंट कमिश्नर के पद से स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि योजना आयोग की बैठक में भाग लेने आये कश्मीर के एक दल को उन्होंने नाश्ते में कबाब और बिरयानी नहीं खिलाई थी। राजस्थान में अशोक गहलोत ने आईपीएस पंकज चौधरी को इसलिए हटा दिया क्योंकि उन्होंने एक हिस्ट्रीशीटर की फाइल को फिर से खोल दिया था जिसे गहलोत सरकार बंद करवा चुकी थी। इससे पहले गहलोत सरकार भरतपुर के आईपीएस विकासकुमार को भी हटा चुकी है, जिसने अवैध खनन में लगे 100 से अधिक वाहन एक ही दिन में जब्त किए थे और अनेक लोगों को गिरफ्तार किया था, राजनीतिक गलियारों में हाहाकार मच गया था और अपनी जमात के लोगों को संतुष्ट करने के लिए गहलोत द्वारा विकासकुमार को हटा दिया गया था, सारे वाहन और पकड़े गए लोग छोड़ दिए गए थे। इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में कमिश्नर हिमांशुकुमार को केवल 23 घंटे में स्थानांतरित कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने भी दुर्गाशक्ति की तरह वहाँ के भू माफिया के विरुद्घ अभियान चलाया था। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। हरियाणा हो या पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश हो या उड़ीसा, तमिलनाडु हो या कर्नाटक, सभी सरकारें आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को अपना वफादार देखना चाहती हैं। सरकारों के काम नियम/कानून विरुद्ध हों तब भी वे उनका ही साथ दें। जो ईमानदारी को नहीं छोड़ना चाहता/चाहती उसे पद से हटा दिया जाता है।

क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं?

उत्तरप्रदेश में 43 आईपीएस अफसर ऐसे हैं जिनको 40 से अधिक बार स्थानांतरित किया गया है। अपने राजनीतिक आकाओं के मनमाफिक काम नहीं करने वालों का यही अंजाम होता है। आपको बहादुरी और कभी-कभी कायरता के लिए ईनाम मिल सकता है, चापलूसी के लिए इनाम मिल सकता है, काले धंधों में भागीदार होने के लिए इनाम मिल सकता है, लेकिन ईमानदारी के लिए कभी इनाम नहीं मिलता, केवल सजा मिलती है। फिर लगभग हर क्षेत्र में ये 5-7 प्रतिशत लोग क्या सिरफिरे होते हैं, जो ईमानदारी का दामन मरते दम तक नहीं छोड़ते। भयंकर यंत्रणाओं का सामना करके भी ये अपनी ईमानदारी पर डटे रहते हैं। या आप कह सकते हैं कि ये अलग ही मिट्टी के बने होते हैं। लेकिन उन्हीं क्षेत्रों में शेष 95 प्रतिशत रीढ़विहीन, प्रवाह के साथ बह जाने वाले, आकाओं को हर तरह से खुश रखने वाले, खुद खाने वाले और ऊपर वालों को खिलाने वाले, हमेशा खुश रहते हैं, समय-समय पर इनाम पाते हैं। सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के जाने से इस देश के आम नागरिक को क्या मिला? अंग्रेजों में कम से कम ईमान तो था, अब जो देशी अंग्रेज सत्ता में हैं वे तो अपना धर्म ईमान पहले ही बेच कर कुर्सी पर बैठते हैं। 15 अगस्त 1947 को केवल सत्ता परिवर्तन हुआ था। देश आजाद नहीं हुआ था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथों से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथों में आ गई थी। जनता तब भी त्रस्त थी आज भी त्रस्त है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

भ्रष्टाचार के मामले में हम एक हैं!

परत-दर-परत उतरते आवरणों के बाद एक बार फिर से भारतीय राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया है। वामपंथ-दक्षिण पंथ, सांप्रदायिक-गैर सांप्रदायिक, प्रगतिशील-बुर्जुआ आदि तमाम मतभेदों को भुला कर तमाम सियासी जमातें कल एक बिंदु पर सहमत हो गई कि अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने और 2 साल की सजा होने पर सदस्यता समाप्ति संबंधी उच्चतम न्यायालय के आदेश को चुनौती दी जाए। सदन में कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ने वाले, संसद न चलने देकर संसद की तौहीन करने वाले, सभी इस मुद्दे पर एक हो गए। इससे दो बाते तो बिलकुल साफ हैं, इनकी लड़ाई दिखावे की है, असलियत में सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सभी दलों का मानना है कि बेहतर चुनाव प्रबंधन के लिए अपराधियों को शामिल करना आवश्यक है। आज संसद में अनेक महत्वपूर्ण बिल लटके पड़े हैं, उन्हें पास करने के लिए ये कभी एक नहीं होंगे। कई दलों के तो आधे जन-प्रतिनिधि अपराधी छवि वाले हैं। एक ही थाली के चट्टे-बट्टे भारत की जनता को बिलकुल बेवकूफ समझते हैं। उन्हें लगता है कि वे कुछ भी करें जनता कुछ नहीं समझती। चार दिन बाद वह सब भूल जाएगी। अपराधियों को तुनाव लड़ने से रोकने वाले उच्चतम न्यायालय के आदेश को चुनौती देकर इन सभी दलों ने यह साबित कर दिया है कि “चाहे लाख जतन करलो हम नहीं सुधरेंगे।”

झारखंड की गरीब आदिवासी लड़कियों के हौसले को सलाम!

कश्मीर से कन्याकुमारी तक और नागालैंड से कच्छ तक पूरे देश में एक बात सर्वविद्यमान है और वह है आपाधापी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता। पहले बचपन में सुनते थे कि कण-कण में भगवान है, लेकिन भगवान का कण-कण में होना तो सत्यापित न हो पाया, हाँ एक नई चीज का पता चल गया जो हमारे देश के कण-कण में विद्यमान है, वह है भ्रष्टाचार। क्षेत्र कोई सा भी हो भ्रष्टाचार अवश्य होगा। खेल भी इससे अछूते नहीं हैं। खेलों के राजा क्रिकेट के महाभ्रष्टाचार से तो कोई भी अनजान नहीं है। झारखंड के एक छोटे से गाँव में कुछ आदिवासी लड़कियों की खेलने में रुचि थी। इन अति-गरीब बच्चियों के पास न तो किसी खेल की जानकारी थी और न ही किसी खेल के लिए साजोसामान था। कैलिफोर्निया के एक युवा फुटबॉलर फ्रैंस की नजर इन लड़कियों पर पड़ी और फ्रैंस ने बीड़ा उठाया इन अनगढ़ हीरों को तराशने का। न साध थे, न आपस में संपर्क के लिए कोई भाषा-साम्य, फिर भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली इन आदिवासी लड़कियों को तैयार कर स्पेन में आयोजित होने वाली एक विश्व स्तरीय फुटबॉल प्रतियोगिता में 13 वर्ष से कम आयु-समूह में भाग लेने का मन बना लिया। जब वीजा की समस्या आई तो लड़कियों ने पंचायत से उन्हें निवास और जन्मतिथि प्रमाण पत्र देने की प्रार्थना की। बदले में उन्हें मारा पीटा गया, दुत्कारा गया, ठोकरें मारी गई, पंचायत भवन में झाड़ू लगवाई गई। खैर किसी प्रकार से निको वीजा मिला, पासपोर्ट बने और ये नन्हीं लड़कियाँ पहुँच गई स्पेन। 30 देशों की 400 से ज्यादा टीमें इस प्रतियोगिता में भाग ले रहीं थी, किंतु हमारी इन नन्हीं परियों ने पहली बार खुली आँखों से सपना देखा था। तो शुरू हुआ एक के बाद एक विदेशी टीमों को हराने का और अंत में भारतीय टीम ने तीसरा स्थान पर हासिल किया। घनघोर आदिवासी इलाके की इन अबोध बालिकाओं की इस महान उपलब्धि पर, कहीं कोई भी पंक्ति नहीं लिखी गई, न किसी फोटोग्राफर की फ्लैश चमकी, न किसी छोटे या बड़े नेता या अधिकारी ने सराहना के दो बोल बोले। भारतीय फुटबॉल संघ और झारखंड फुटबॉल संघ का कहना है कि ये लड़कियाँ हमारे माध्यम से नहीं गई थी और स्पेन की प्रतियोगिता का तो हमें पता तक नहीं था।
सवाल यह उठता है कि 135 करोड़ के इस देश में हजारों नहीं लाखों प्रतिभाएँ बिखरी हुई हैं, क्या किसी भी खेल संघ ने ग्रामीण भारत से कभी प्रतिभाओं की तलाश करने की कोशिश की? कितने शर्म की बात है कि एक विदेशी अकेला अपने दम पर कुछ निहायत गरीब आदिवासी लड़कियों को तलाशता, तराशता है और एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में वे लड़कियाँ तीसरा स्थान प्राप्त करती हैं। यदि उनको मैदान, साधन और पोषण प्रदान किया गया होता तो कोई कारण नहीं था कि वे पहला स्थान भी प्राप्त कर सकती थी। लेकिन ऐसा होगा कैसे? हमारे खेल संघ भी तो घोर राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि एक आदमी 40 साल, 22 साल, 20 साल से एक ही पद पर जमा हुआ है और सराकरी अनुदान तथा प्रायोजन से प्राप्त पैसे की लूट खसोट में ही व्यस्त है, खेल जाए भाड़ में। झारखंड की बीपीएल परिवारों की इन वीर बालाओं के हौसले को सलाम।