सोमवार, 4 मई 2015

आदमी अकेला हो गया है

आदमी अकेला हो गया है - विनोद शर्मा ‘व्याकुल’
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कंक्रीट के जंगल में
धुआं उगलते
वाहनों की रेलमपेल में
बेतहाशा दौड़ते
सिटी बसों में लटकते
इधर-उधर भटकते
नौकरी की तलाश में
रोटी के जुगाड़ में
आदमी अकेला हो गया है
शायद खो गया है
उसका होना या न होना
कतई अहम नहीं रहा
उद्देश्य जीने का नहीं रहा
बेकारी और लाचारी
साथी बने हैं
निराशा को घना कर रहे हैं
आखिर कहाँ जाए
क्या करे
आदमी अकेला हो गया है

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