शनिवार, 5 जुलाई 2014

बढ़ता पाखंड

आज के समाज में अनेक विद्रूपताएँ और अंतर्द्वंद्व सामने आ रहे हैं। यह एक ओर पुरानी वर्जनाओं को तोड़ कर आगे बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है तो दूसरी और पाखंडों और ढकोसलों का प्रभाव निरंतर बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है। संक्रमण के इस दौर में संभवतः लोग सही दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। अनिश्चित भविष्य और सदैव विद्यमान रहने वाली अनिष्ट की आशंका ने लोगों को भीरू बना दिया है। इसके कारण उनकी प्रगतिशीलता के कोई मायने नहीं रह जाते हैं।

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