शनिवार, 5 जुलाई 2014

बढ़ता अविश्वास

हमारे चारों तरफ अनास्था, अविश्वास, संदेह, शक का वातवरण इतना गहरा है कि कई बार तो सामने दिखाई देने वाली चीज पर भी हमें विश्वास नहीं होता है। किसी के द्वारा पूरी सद्भावना से किए गए काम में भी हमें निहितार्थ नजर आने लगते हैं। कुल मिला कर हमारी प्रकृति ही ऐसी बन गई है। इसका कारण भी है, वास्तव में सच्ची मंशा से, निस्स्वार्थ भाव से परहित या लोकहित के लिए कुछ करने वाले इतने कम हैं कि उन्हें ढूँढना भुस में सुई ढूँढने के समान हो गया है। लब्बोलुबाब यह है कि आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता कि सामने वाले की नीयत साफ और निष्कपट है। यह और भी मुश्किल हो जाता है जब आपको सामने वाले के पिछले इतिहास के बारे में नाकारात्मक बातों की जानकारी हो। इसी बात को देश जैसे बड़े कैनवास पर भी लागू किया जा सकता है।

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