शनिवार, 5 जुलाई 2014

अनजान दोस्त


मेरे अनजान दोस्त,
मानता हूँ 
अनजान नहीं हो,
लेकिन लोग इसे
आभासी दुनिया कहते हैं,
इस तर्क से
दोस्त भी तो आभासी हुए,
अजीब दुविधा है,
यह कैसी आभासी दुनिया है,
जिस का असर
यथार्थ में होता है
दोस्त चाहे जितना
दूर हो मगर क्यों
दिल के पास होता है।
क्यों रोज तुम्हारी
चंद पंक्तियाँ
देखने को आँखें
और
पढ़ने को दिल
तरसता है।
यह कैसा बंधन है?
कैसा ये नाता है?
हो सकता है
तुम तुम न हो
या, फिर
मैं मैं न हूँ,
फिर भी
ये अपनापन
क्यों प्रगाढ़ हुआ जाता है?

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