शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

झारखंड की गरीब आदिवासी लड़कियों के हौसले को सलाम!

कश्मीर से कन्याकुमारी तक और नागालैंड से कच्छ तक पूरे देश में एक बात सर्वविद्यमान है और वह है आपाधापी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता। पहले बचपन में सुनते थे कि कण-कण में भगवान है, लेकिन भगवान का कण-कण में होना तो सत्यापित न हो पाया, हाँ एक नई चीज का पता चल गया जो हमारे देश के कण-कण में विद्यमान है, वह है भ्रष्टाचार। क्षेत्र कोई सा भी हो भ्रष्टाचार अवश्य होगा। खेल भी इससे अछूते नहीं हैं। खेलों के राजा क्रिकेट के महाभ्रष्टाचार से तो कोई भी अनजान नहीं है। झारखंड के एक छोटे से गाँव में कुछ आदिवासी लड़कियों की खेलने में रुचि थी। इन अति-गरीब बच्चियों के पास न तो किसी खेल की जानकारी थी और न ही किसी खेल के लिए साजोसामान था। कैलिफोर्निया के एक युवा फुटबॉलर फ्रैंस की नजर इन लड़कियों पर पड़ी और फ्रैंस ने बीड़ा उठाया इन अनगढ़ हीरों को तराशने का। न साध थे, न आपस में संपर्क के लिए कोई भाषा-साम्य, फिर भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली इन आदिवासी लड़कियों को तैयार कर स्पेन में आयोजित होने वाली एक विश्व स्तरीय फुटबॉल प्रतियोगिता में 13 वर्ष से कम आयु-समूह में भाग लेने का मन बना लिया। जब वीजा की समस्या आई तो लड़कियों ने पंचायत से उन्हें निवास और जन्मतिथि प्रमाण पत्र देने की प्रार्थना की। बदले में उन्हें मारा पीटा गया, दुत्कारा गया, ठोकरें मारी गई, पंचायत भवन में झाड़ू लगवाई गई। खैर किसी प्रकार से निको वीजा मिला, पासपोर्ट बने और ये नन्हीं लड़कियाँ पहुँच गई स्पेन। 30 देशों की 400 से ज्यादा टीमें इस प्रतियोगिता में भाग ले रहीं थी, किंतु हमारी इन नन्हीं परियों ने पहली बार खुली आँखों से सपना देखा था। तो शुरू हुआ एक के बाद एक विदेशी टीमों को हराने का और अंत में भारतीय टीम ने तीसरा स्थान पर हासिल किया। घनघोर आदिवासी इलाके की इन अबोध बालिकाओं की इस महान उपलब्धि पर, कहीं कोई भी पंक्ति नहीं लिखी गई, न किसी फोटोग्राफर की फ्लैश चमकी, न किसी छोटे या बड़े नेता या अधिकारी ने सराहना के दो बोल बोले। भारतीय फुटबॉल संघ और झारखंड फुटबॉल संघ का कहना है कि ये लड़कियाँ हमारे माध्यम से नहीं गई थी और स्पेन की प्रतियोगिता का तो हमें पता तक नहीं था।
सवाल यह उठता है कि 135 करोड़ के इस देश में हजारों नहीं लाखों प्रतिभाएँ बिखरी हुई हैं, क्या किसी भी खेल संघ ने ग्रामीण भारत से कभी प्रतिभाओं की तलाश करने की कोशिश की? कितने शर्म की बात है कि एक विदेशी अकेला अपने दम पर कुछ निहायत गरीब आदिवासी लड़कियों को तलाशता, तराशता है और एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में वे लड़कियाँ तीसरा स्थान प्राप्त करती हैं। यदि उनको मैदान, साधन और पोषण प्रदान किया गया होता तो कोई कारण नहीं था कि वे पहला स्थान भी प्राप्त कर सकती थी। लेकिन ऐसा होगा कैसे? हमारे खेल संघ भी तो घोर राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि एक आदमी 40 साल, 22 साल, 20 साल से एक ही पद पर जमा हुआ है और सराकरी अनुदान तथा प्रायोजन से प्राप्त पैसे की लूट खसोट में ही व्यस्त है, खेल जाए भाड़ में। झारखंड की बीपीएल परिवारों की इन वीर बालाओं के हौसले को सलाम।

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