मुक्ति
– विनोद शर्मा ‘व्याकुल’
मनुष्य के जीवन का
संध्याकाल ही संभवतः उसके जीवन का सबसे कठिन समय होता है। इस अवस्था के आते-आते
शारीरिक शक्तियों का क्षय प्रारंभ हो चुका होता है और विचार शक्ति अपने उच्चतम
स्तर पर होती है। जीवन के विभिन्न सोपानों से प्राप्त अनुभवजन्य ज्ञान का संचय अब
चीजों को देखने-समझने की एक नई दृष्टि प्रदान करता है। इससे पूर्व जीवन की उठापटक
में कभी किसी चीज को प्रत्यक्ष पहलू से इतर किसी अन्य दृष्टिकोण से देखने या परखने
का अवसर ही नहीं मिला होता है।
एक विचित्र स्थिति
होती है- अतिशय परिश्रम से थकी हुई देह में चरम क्रियाशील मस्तिष्क को हर बात के
विभिन्न पहलुओं को देखने-समझने-परखने का समय मिलता है। इस बदली हुई परिस्थिति में
पहली बार उसे अनुभव होता है कि वह अनेक अनावश्यक बंधनों में जकड़ा हुआ है- जैसे वह
किसी यांत्रिक प्रक्रिया का एक अंग मात्र बन कर रह गया है। वह अपने अस्तित्व को
ढूँढने लगता है तो पाता है कि उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। उसकी
दिनचर्या में जितनी भी गतिविधियाँ शामिल हैं उनका नियंत्रण उसके स्वयं के हाथ में
नहीं है। मस्तिष्क जितना ज्यादा सोचता है, उतनी ही यह स्थिति उसे अखरने लगती है।
एकाएक, संभवतः जीवन में पहली बार वह अपने अंदर एक छटपटाहट को जन्म लेते देखता है-
मुक्त होने की छटपटाहट, बंधनों को तोड़ कर स्वतंत्र होने की कुलबुलाहट!
इसी प्रसंग में
पांडे जी का किस्सा याद आता है, जिनका पूरा नाम तो गिरधर प्रसाद पांडे था लेकिन मुहल्ले
भर में सब उन्हें पांडे जी के नाम से ही जानते थे। पांडे जी के बारे में कई बातें
किंवदंतियों के रूप में प्रसिद्ध थी। पांडे जी प्रादेशिक प्रशासनिक सेवा के एक
उसूलों के पक्के, ईमानदार और न्यायप्रिय अधिकारी रहे थे। ऐसे व्यक्ति प्रायः
लोकप्रिय नहीं होते हैं, किंतु पांडे जी के मामले में ऐसा नहीं था। वे अत्यंत
मिलनसार, मृदुभाषी और हँसमुख प्रकृति के व्यक्ति थे। उनका सुखी परिवार था, बच्चे
सब अपने-अपने जीवन में व्यवस्थित हो चुके थे। उन्हें सेवानिवृत हुए दो वर्ष हो
चुके थे। कुछ दिनों से वे अपनी प्रकृति और स्वभाव के विपरीत ध्यानमग्न, गंभीर और एकांतप्रिय
से हो चले थे।
एक दिन पार्क में
टहलते हुए, मैंने पूछ ही लिया, “पांडे जी, पिछले कुछ दिनों में आपके अंदर
उल्लेखनीय परिवर्तन नजर आ रहा है। आपका वो हँसना-हँसाना, हर किसी से तपाक से मिलना
और उसकी कुशल-क्षेम लेना आजकल कहीं नजर नहीं आता। क्या कोई परेशानी है?”
पांडे जी ने एक लंबी
सांस लेते हुए, दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया, “मनुष्य का जीवन क्या है – बंधनों
का एक जाल है। जीवन में कितने बंधन उसे जकड़े हुए हैं, शायद ठीक से उसे पता भी
नहीं होता है।”
मेरे सीधे प्रश्न के
उत्तर में यह असंबद्ध उक्ति सुन कर, उनके इस दार्शनिक अंदाज का कारण जानने की मेरी
जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने उनकी ही बात को सूत्र बना कर पूछा, “क्या बात है, पांडे
जी, इन दिनों किसी दार्शनिक का कोई ग्रंथ तो नहीं पढ़ रहे हैं?”
पांडे जी ने अहले
वाले अंदाज में ही, सामने आकाश में सूर्यास्त के बाद छाई लालिमा के बीच कहीं नजरें
जमाए हुए जवाब दिया, “शर्मा जी, अब समय मिला है तो वे बातें स्पष्ट होने लगी हैं
जिन पर विचार करने की हमने कभी जरूरत भी नहीं समझी थी। आप भी तो इसी अवस्था से
गुजर रहे हैं, क्या आपने अपने जीवन, अपनी दिनचर्या, जीवन के भांति-भांति के बंधनों
आदि पर कभी विचार नहीं किया है? क्या आपका मन में एक मुक्त, स्वतंत्र जीवन बिताने
की इच्छा जागृत नहीं होती है?”
अब बात कुछ-कुछ मेरी
समझ में आने लगी थी। अपने पेशागत, सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों का निष्ठा से
निर्वाह करने के बाद, अब शायद उन्हें अपने बारे में सोचने का समय मिला है और उनके
अंदर का व्यक्ति अपनी इच्छा से, अपने अनुसार जीवन जीने के लिए छटपटा रहा है। अभी
तक का जीवन तो दूसरों के लिए समर्पित रहा था, अब वह मुक्त होने के लिए, परवाज भरने
के लिए अपने पंख फड़फड़ा रहा है।
अंधेरा घिर आया था,
इसलिए मैंने भी बात को विराम देने के आशय से उनकी बात का समर्थन करते हुए कह दिया
कि हाँ, मुझे भी लगभग इसी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं।
इसके बाद, कुछ ऐसा
संयोग हुआ कि लगभग दो महीने तक उनसे पार्क में मिलना नहीं हो सका। पारिवारिक
कार्यों से मेरा अधिकतर समय यात्राओं में ही बीता। जब मैंने फिर से पार्क जाना
शुरू किया तो एक सप्ताह निकल गया लेकिन पांडे जी एक दिन भी नजर नहीं आए। मुझसे रहा
नहीं गया, पांडे जी के पड़ोसी गुप्ता जी नजर आए तो मैंने पूछ ही लिया, “गुप्ता जी,
आजकल पांडे जी नजर नहीं आ रहे हैं, क्या बात है, उनका स्वास्थ्य तो ठीक है?”
गुप्ता जी तपाक से
बोले, ׅ“अरे! शर्मा जी,
क्या आपको पता नहीं? पांडे जी तो वानप्रस्थी हो गए हैं। पिछले महीने की बात है,
पूरे परिवार को इकट्ठा कर के घोषणा कर दी कि देखो, मैंने सारा जीवन सबके लिए सब
कुछ किया है। अब मैं शेष जीवन अपनी मर्जी से, अपने अनुसार जीना चाहता हूँ। उनकी
पत्नी, पुत्र, पुत्रवधु, पुत्री-दामाद, हर किसी ने उन्हें लाख समझाया कि आप घर में
भी तो अपनी मर्जी से जो चाहें कर सकते हैं। आपके किसी काम, किसी गतिविधि पर परिवार
के किसी सदस्य को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन पांडे जी तो जैसे भीष्म-प्रतिज्ञा कर
चुके थे। अगले ही दिन, उनके घर के सामने एक टैक्सी खड़ी थी। परिवार के सभी सदस्य
रो रहे थे और पांडे जी ने दो सूटकेस टैक्सी में रखे तथा वहाँ एकत्रित पड़ोसियों और
परिवार के लोगों की तरफ हाथ जोड़ कर टैक्सी में बैठ गए। उनकी पत्नी ने खिड़की में
मुँह डाल कर सुबकते हुए अनुरोध किया, “आप जहां भी रहें, कम से कम अपनी कुशलता का
समाचार तो देते रहना।” और इस तरह से पांडे जी अज्ञात स्थान को चले गए।”
गुप्ता जी के चुप होने पर, मेरे मुँह से आगे कोई प्रश्न नहीं
निकला। मेरे दिमाग में तो जैसे आँधियाँ सी चल रही थीं। पांडे जी आखिर कैसी मुक्ति
या स्वतंत्रता चाहते थे? जिस परिवार के प्रति सारा जीवन पूरी निष्ठा से अपने
दायित्वों का पालन किया, इसी परिवार को त्याग कर उहें कौन सी मुक्ति हासिल होगी?
मैं भारी कदमों से घर लौट आया था। कई दिन तक मन खिन्न सा रहा। फिर बात आई-गई हो
गई। हाँ, पार्क में कभी-कभी गुप्ता जी से पांडे जी का समाचार मिल जाता था, जैसे अब
वे कानपुर में हैं, अब वे वाराणसी चले गए हैं, फिर पता चला वे कोलकता पहुँच गए थे।
एक दिन अचानक मेरे फोन की घंटी बजी, मैंने फोन उठाया तो पांडे
जी का चहकता स्वर सुनाई दिया, “शर्मा जी, कैसे हैं? आपको पता है! मुझे अपने जीवन
का लक्ष्य मिल गया है। मुझे एक परमज्ञानी गुरू मिल गए हैं। अब मैं मुक्ति के मार्ग
पर चल पड़ा हूँ।”
मैंने बेमन से ही उनको आगाह किया, “पांडे जी, वह तो ठीक है,
लेकिन क्या आपने पूरी जाँच पड़ताल कर ली है कि जिन्हें आपने गुरू बनाया है, वे
वास्तव में साधु या संत ही हैं?”
पांडे जी ने इस बार जवाब दिया तो मुझे उनके स्वर में एक
प्रकार की लड़खड़ाहट सी अनुभव हुई, “आप निश्चिंत रहिए, बहुत पहुँचे हुए महात्मा
हैं। यहां आकर मेरा तो जीवन सफल हो गया।” बात पूरी होते-होते मुझे यकीन हो गया था
कि पांडे जी शराब या किसी अन्य नशे के प्रभाव में बात कर रहे थे। मेरे अंदर से एक
अदृश्य आवाज आ रही थी कि पांडे जी किसी गलत व्यक्ति के चंगुल में फँस गए हैं।
उसी शाम, पार्क में गुप्ता जी से मुलाकात हुई, तो मैंने उनसे
कहा कि मुझे पांडे जी के घर ले चलें, कुछ जरूरी बातें करनी हैं। हम दोनों पांडे जी
के घर पहुँचे, तो संयोग से उनके पुत्र और पुत्रवधु भी घर पर मिल गए। मैंने पांडे
जी से फोन पर हुई बातचीत के बारे में बताने के बाद उन लोगों से अनुरोध किया कि
किसी तरह से पांडे जी को वापस बुला लीजिए। मुझे यह आशंका हो रही है कि वे शायद गलत
लोगों के चंगुल में फँस गए हैं। पांडे जी के बेटे राजेश ने बताया कि वे सब तो हर
तरह का प्रयास कर चुके हैं। पांडे जी किसी की नहीं सुनते हैं, उन के सिर पर तो
जैसे मुक्ति का भूत सवार है। फिर भी मैंने उन लोगों को हिदायत दी कि अगर अगले
दो-चार दिन में पांडे जी का कोई संदेश न मिले तो उनकी लोकेशन का पता लगा कर, उनहें
एक बार वहां जा कर प्रयास करना चाहिए।
उस बात को मुश्किल से दो सप्ताह ही हुए होंगे, कि एक दिन जैसे
ही सुबह का अखबार उठाया तो उसमें बंगाल पुलिस की ओर से एक विज्ञप्ति छपी थी जिसमें
फटे हुए कपड़ों में, बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ पांडे जी की तस्वीर छपी थी और बताया
गया था कि यह व्यक्ति जो अपना नाम गिरधर प्रसाद पांडे बताता है सुंदरवन में
वनरक्षकों को व्यक्ति को बेहोशी की अवस्था में मिला था। यह मानसिक रूप से असंतुलित
लगता है। अपने बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं दे पा रहा है। बड़बड़ाहट में उसके
मुँह से एक दो बार जयपुर का नाम सुना गया है। अतः स विज्ञापन के माध्यम से इस
व्यक्ति के परिजनों से अपील की जाती है कि इस व्यक्ति को पहचानने वाले कृपया नीचे
दिए गए फोन नंबरों पर संपर्क करें।
मैं अखबार हाथ में लिए हुए ही सीधा पांडे जी के घर पहुँचा, तो
वहाँ उनके पुत्र राजेश और पड़ोसी गुप्ता जी भी वही अपबार हाथ में लिए अति चिंतित नज़र
आ रहे थे। उसी समय दिए गए फोन नंबरों पर बात की गई और बंगाल पुलिस के अधिकारी को
पांडे जी का पूरा परिचय दिया गया। उनकी तरफ से कहा गया कि आप लोग आकर इन्हें ले
जाएँ। फैसला हुआ कि राजेश और पांडे जी के दामाद आज की फ्लाइट से कोलकता जाएँगे।
मैं भारी कदमों से घर लौट रहा था और सोच रहा था कि इस मुक्ति
के दुष्चक्र में कितने लोग अपनी जिंदगियाँ तबाह और बर्बाद कर चुके हैं। मुक्ति कोई
भौतिक उपल्ब्धि नहीं है, यह तो एक मानसिक अवस्था है जिसे कहीं भी रह कर प्राप्त
किया जा सकता है।
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इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंविनोद शर्मा के ब्लॉग में सांसारिक मोह माया से मुक्ति के प्रयास में पांडे जी जैसे हर दृष्टि से सफल कहे जाने वाले व्यक्ति द्वारा स्वयं की खोज के बारे में बहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया गया है। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी जैसे दुर्लभ गुणों के साथ जिस व्यक्ति ने मिलनसारिता और हंसमुख स्वाभाव पाया है, उसे मुक्ति की कैसी जरूरत थी, उनके मन में क्या उथल-पुथल मची थी, ये तमाम सवाल अभी भी अधूरे हैं। फिर भी मैं विनोद शर्मा सर के निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत हूँ कि मुक्ति एक मानसिक चाह है और इसके लिए एकांत की जरूरत है, किसी वानप्रस्थ की नहीं।
जवाब देंहटाएंपंकज जी, सर्वप्रथम आपका हार्दिक आभार कि आपने न केवल पढ़ने के लिए समय निकाला, बल्कि कहानी की समीक्षा भी की, जो आपके कथा-पारखी होने का प्रमाण है। आपकी टिप्पणी मेरे लिए उत्साहवर्धक है।
जवाब देंहटाएंवरना तो लोग केवल फेसबुक पर कहानी को पढ़े बिना ही लाइक कर रहे हैं। आप जैसे सुधी पाठकों से ही मेरे जैसे नव लेखकों को प्रेरणा मिलती है। यह एक लघुकथा है, जिसका सीमित उद्देश्य है, अतः कहानी के मुख्य पात्र पांडे जी के मन की उथल-पुथल का विस्तार से वर्णन नहीं किया गया। यदि उसे शामिल किया जाता तो विषय बहुत व्यापक और विस्तृत हो जाता। आशा है आपके प्रश्न का समाधान हो गया होगा। अनुरोध है कि भविष्य में भी अपनी बहुमूल्य राय देते रहें। धन्यवाद।
आपका बहुत शुक्रिया.. सर जी ! आप जैसे फेसबुक मित्रों के अच्छे पोस्ट और ब्लॉग से काफी प्रभावित हूँ और समय मिलने पर अपनी राय देने में ख़ुशी का भी अहसास होता है।
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