बुढ़ापा एक बदनसीबी
-
विनोद शर्मा
‘व्याकुल’
चंचल बचपन और अल्हड़
जवानी
कब कैसे गुजर गए कुछ
याद नहीं,
खप गई अधेड़ावस्था
घर चलाने में।
लगा दिन रात पाई पाई
जुटाने में,
पैर हमेशा चादर से
बाहर रहते थे।
न खुद का होश था न
फुरसत थी,
बच्चे कुछ बन जाएँ
ये हसरत थी।
फर्ज तमाम बखूबी
निभाए गए थे,
बच्चे भी अच्छे ओहदे
पा गए थे।
बुढ़ापा ये नामुराद
जब से आया है,
उपेक्षा के बियाबान
में दर्द साया है।
उंगली पकड़ चलना
सिखाया जिनको,
वही आज उँगली दिखाते
हैं मुझको।
कितना कष्ट सहा उनके
सुख के लिए,
मेरी तकलीफें बनी
बहाना उनके लिए।
पहुँचाया था स्कूल
कांधे पर बिठा कर
पटक दिया गया हूँ
कोने में उठा कर।
फ्रेम में जड़ी
तसवीर बन रह गया हूँ,
पाला था सबको मोहताज
बन गया हूँ।
इस बूढ़े की किसी को
जरूरत नहीं है,
हाल जानने की उन्हें
फुरसत नहीं है।
कबाड़खाने में टूटे
फर्नीचर सा पड़ा हूँ,
काँटा बनके सब की
नज़र में गड़ा हूँ।
आता है ये बुढ़ापा बदनसीबी
बन कर,
जिंदगी हुई मुहाल
‘व्याकुल’ बूढ़ा हो कर।
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