“अगर मेरी बेटी शादी से पहले किसी से संबंध बनाती या अपनी नैतिकता को भूल कर किसी के साथ रात को पिक्चर देखने जाती तो मैं उसे अपने फार्म हाउस ले जाकर, अपने परिवार के सामने पेट्रोल डाल कर आग लगा देता” -ए. पी. सिंह, दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों का वकील।
एक बात समझ में नहीं आ रही है कि दुष्कर्म के आरोपियों के वकील द्वारा बुर्जुआ मानसिकता का एक बयान दिया गया, जो निश्चय ही धिक्कार के योग्य है, लेकिन मीडिया द्वारा जिस प्रकार उस को अपने स्टूडियो में बुला कर लगातार इस पर चर्चा की जा रही है, उससे तो उसके विचारों को व्यापक प्रचार मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर निरंतर पोस्ट लिखे जा रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि दुनिया भर में समाज पुरुषसत्तात्मक हैं। भारत में भी शिक्षा के प्रसार और वैश्वीकरण के संपर्क के परिणामस्वरूप लोगों की सोच में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है। महिलाओं के एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। लेकिन अभी भी समाज में तीन स्पष्ट विभाजन नजर आते हैं। एक जो पूरी तरह से नारी की स्वतंत्रता के हामी हैं और दूसरे जो पुरानी सोच के दायरे से नहीं निकल पाए हैं। इन दोनों वर्गों की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं है। सबसे बड़ी संख्या सोच के संक्रमण से गुजर रहे वर्ग की है जिसका मन पुरातन पुरुषवादी सत्तात्मक समाज के साथ है किंतु उसका तार्किक मस्तिष्क आधुनिक समाज के साथ जाने को प्रेरित करता है। इस बड़े वर्ग के लोगों की कथनी और करनी में भारी अंतर है। ये लोग चूँकि बीच में लटके हैं इस लिए बात तो नारी स्वतंत्रता की करते हैं लेकिन व्यवहार में पुरुषप्रधान, पितृसत्तात्मक आचरण करते हैं। कृपया उस पितृसत्तात्मक सोच वाले वकील पर चर्चा को विराम दें जिससे उसके विचारों का समाज के इस सबसे बड़े, बीच में लटके लोगों पर अधिक प्रभाव न हो।
एक बात समझ में नहीं आ रही है कि दुष्कर्म के आरोपियों के वकील द्वारा बुर्जुआ मानसिकता का एक बयान दिया गया, जो निश्चय ही धिक्कार के योग्य है, लेकिन मीडिया द्वारा जिस प्रकार उस को अपने स्टूडियो में बुला कर लगातार इस पर चर्चा की जा रही है, उससे तो उसके विचारों को व्यापक प्रचार मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर निरंतर पोस्ट लिखे जा रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि दुनिया भर में समाज पुरुषसत्तात्मक हैं। भारत में भी शिक्षा के प्रसार और वैश्वीकरण के संपर्क के परिणामस्वरूप लोगों की सोच में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है। महिलाओं के एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। लेकिन अभी भी समाज में तीन स्पष्ट विभाजन नजर आते हैं। एक जो पूरी तरह से नारी की स्वतंत्रता के हामी हैं और दूसरे जो पुरानी सोच के दायरे से नहीं निकल पाए हैं। इन दोनों वर्गों की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं है। सबसे बड़ी संख्या सोच के संक्रमण से गुजर रहे वर्ग की है जिसका मन पुरातन पुरुषवादी सत्तात्मक समाज के साथ है किंतु उसका तार्किक मस्तिष्क आधुनिक समाज के साथ जाने को प्रेरित करता है। इस बड़े वर्ग के लोगों की कथनी और करनी में भारी अंतर है। ये लोग चूँकि बीच में लटके हैं इस लिए बात तो नारी स्वतंत्रता की करते हैं लेकिन व्यवहार में पुरुषप्रधान, पितृसत्तात्मक आचरण करते हैं। कृपया उस पितृसत्तात्मक सोच वाले वकील पर चर्चा को विराम दें जिससे उसके विचारों का समाज के इस सबसे बड़े, बीच में लटके लोगों पर अधिक प्रभाव न हो।
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